कायस्थ : एक पुरातातिवक विवेचन

‘कायस्थ’ शब्द आज एक ऐसा शब्द है जो चित्रगुप्त की विभिन्न सन्तानों से उदभूत हुये महापरिवार का धोतक है। आज भारतीय समाज में ‘कायस्थ’ एक ऐसी जाति है जो वैदिक वर्ण-व्यवस्था के लगभग बाहर समझी जाती है और कायस्थ लोगों को ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नामक वर्णो में प्राय: अनितम वर्ण में समिमलित समझा जाता है। यह बात अलग है कि उन्हें उच्च पदस्थ प्रशासक के सनिनकट होने के कारण समाज में सम्मान की दृषिट से देखा जाता है।

किन्तु इस लेख में ‘कायस्थ’ शब्द के ऐतिहासिक महत्व और अर्थ पर विचार किया गया है। यों स्व0 रघुबर मिटठूलाल शास्त्री ने सन 1974 र्इ0 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘कायस्थ कौन है ?’ में इस बात पर व्यापक प्रकाश डाला है कि ‘कायस्थ’ शब्द जातिवाची न होकर पदवाची है और यह पद प्राय: ब्राह्राण को ही दिया जाता है। परन्तु यहां पर पुरातातिवक दृषिट से इसी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

कुछ वर्ष पहले तक कायस्थों का असितत्व गुप्तकाल में स्वीकार किया जाता था क्योंकि उसी काल से ‘कायस्थ’ शब्द का उल्लेख मिला है। कुमारगुप्त प्रथम तथा बुध गुप्त के दामोदरपुर (बंगाल) ताम्रपत्र अभिलेखों में उपरिक कुमारामात्य, नगरश्रेषिठ, सार्थवाह तथा प्रथम कुलिक के साथ-साथ प्रथम कायस्थ के उल्लेख पाये जा चुके हैं जिन्हें सर्वसम्मत पदाधिकारी माना जा चका है। दोनों अभिलेख इस प्रकार हैं –

कुमारगुप्त प्रथम का दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख

‘संवत 200+20+4 फाल्गुण दिo 7 परमदैवत परम-भटटारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्ते पथ्वीपतौ तत्पाद-परिगृहीते पुण्ड्रवद्र्धन भुक्तादूपरिक चिरादत्तेनानुवहवानक कोटिवर्ष विषये च तन्नियुक्त कुमारामात्य वेत्रवर्मन्यधिष्ठाणाधिकरण्च नगरश्रेषिठ धृतिपाल साथ्र्वहबन्धुमित्र प्रथमकुलिक धृतिमित्र प्रथमकायस्थ शाम्बल पुरोगे संव्यवहरति”-

अनुवाद “संवत 124 फाल्गुन दिन 7 । परमदैवत परमभटटारक महाराजाधिराज श्री कुमार गुप्त पृथिवीपति के पाद द्वारा गृहीत पुण्ड्रवर्धन भुक्ति किे उपरिक चिरातदत्त के समृद्ध शासन के अन्तर्गत कोटिवर्ष विषय है। उनके द्वारा नियुक्त इस विषय के विषयपति कुमारामात्य वेत्रवर्मन और अधिष्ठान (नगर) के अधिकरण के सदस्य नगरश्रेषिठ धृतपाल, सार्थवाह बन्धुमित्र, प्रथमकुलिक धृतिमित्र, प्रथमकायस्थ शाम्बपाल तथा पुरोग यह सूचित करते हैं।”

दामोदरपुर से प्राप्त कुमारगुप्त प्रथम के संवत 128 वाले दूसरे ताम्रपत्र-अभिलेख में भी इन्हीं अधिकारियों का उल्लेख है।

बन्धुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख

‘फाल्गुणादि 10+5 परमदैवत-परमभटटाकर-महाराजाधिराज श्री बुधगुप्ते पथ्वीपतौ तत्पाद-परिगृहीतस्य पुण्ड्रवद्र्धन भुäावपरिक-महाराज जयदत्तस्य भोगेनानुवहमानके कोटिवष्र्षविषये च तन्नियुक्तकेहयुक्त शण्डके अधिष्ठानाधिकरणं नगरश्रेषिठरिभुपाल सात्र्थवाह वसुमित्र-प्रथमकुलिकवरदत्त-प्रथमकायस्थविप्रपाल पुरोगे च सम्व्यवहरति-‘

अनुवाद-“फाल्गुन दिन 15| परमदैवत परम-भटटारक महाराजाधिराज श्रीबधुगुप्त पथ्वीपति हैं। उनके परिगृहीत पुण्ड्रवर्धन भुä किे उपरिक जयदत्त के प्रशासन में समृद्धि प्राप्त करने वाला कोटिवर्ष विषय, वहाँ उनके द्वारा नियुä आयुä शण्डक और अधिष्ठान के अधिकरण के सदस्य-नागरश्रेषिठ रिभुपाल, सार्थवाह वसुमित्र, प्रथमकुलिक वरदत्त, प्रथमकायस्थ विप्रपाल और पुरोग यह सूचना देते हैं।”

गुप्तकाल में राज्य को देश तथा उसकी इकाइयों को भुä अिैर विषय कहा जाता था। ‘भुä’ि आजकल की कमिश्नरी तथा विषय’ आजकल के जिले के समान रहे होंगे। भुä कि शासनकेन्द्र अधिष्ठान कहलाता था और विषय के प्रशासक को विषयपति कहते थे जो कि कुमारामात्य (आजकल के आर्इ.ए.एस. जैसे) की श्रेणी के हुआ करते थे। उपरोä अभिलेखों में पुण्ड्रवर्धन भुä किे अंतर्गत कोटिवर्ष नामक विषय में की गर्इ कार्यवाही में जिन पदाधिकारियों का उनके नाम सहित उल्लेख हैं वे हैं नगर-श्रेषिठ-धृतिपाल, सात्र्थवाह-बन्धुमित्र, प्रथम-कुलिक-धृतिमित्र और प्रथमकायस्थ-शाम्बपाल। गुप्तकालीन, यह विवरण स्पष्टरूप से कायस्थ केा एक पद के रूप में प्रस्तुत करता है, जातिवाची कदापि नहीं।

इसी प्रकार कुमारगुप्त प्रथम से भी पहले चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य को पटरानी ध्रुवस्वामिनी की गढ़वा से मिली एक मोहर पर भी कायस्थ का उल्लेख है। मोहर का अभिलेख इस प्रकार है-

‘परमभटटारक परमभागवत गरूड़मर्दक लिच्छवि दौहित्रस्य-श्री महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तस्य विक्रमादित्यस्य ज्येष्ठमहिष्या: ध्रुवस्वामिन्या: ज्येष्ठकायस्थस्य’-

अर्थात “परमभटटारक परमभागवत गरुड की मुद्रा रखने वाले लिच्छवियों के दौहित्र (अर्थात समुद्रगुप्त के पुत्र) महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त की श्रेष्ठ महिषी अर्थात पटरानी के ज्येष्ठ कायस्थ”-

उपरोä अभिलेखों में ‘प्रथमकायस्थ’ तथा ‘ज्येष्ठ कायस्थ’ का अर्थ प्रधान लिपिक से है कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में पुण्ड्रवर्धन भुä मिें प्रथमकायस्थ शाम्बपाल था जबकि बुधगुप्त के शासन के समय प्रथम कायस्थ विप्रपाल था।

गुप्तकाल के कतिपय अन्य ग्रन्थों में भी पदवाची शब्द ‘कायस्थ’ का उल्लेख पाया गया है। श्रीशूद्रक विरचित मृच्छकटिकम, नाटक के नवम सर्ग में ‘श्रेषिठ-कायस्थौ’ अर्थात श्रेषिठ और कायस्थ का एक साथ उल्लेख है। जिस प्रकार श्रेषिठ का अर्थ सेठ (नगर-सेठ) था उसी प्रकार कायस्थ का अर्थ पेशकार था जो जो न्यायाधिकरण (न्यायालय) की कार्यवाही को लिपिबद्ध करके पेश करता था। गुप्तकालीन एक भाँड़ ग्रन्थ श्यामिलक विरचित ‘पादताडितकम’ में भी ‘कायस्थ’ शब्द आता है जहाँ उसे धूस लेने वाले कर्मचारी के रूप में अंकित किया गया है। एक स्थान पर कचहरी के कर्इ कर्मचारियों के नाम लिए गये हैं जैसे पुस्तपाल, काष्ठक, महत्तर तथा कायस्थ। इस विवरण से भी ‘कायस्थ’ शब्द लिपिक जैसे किसी पद का बोध कराता है जाति का नहीं।

लगभग 7-8 वर्ष पहले मथुरा से मिले प्रथम शती र्इ. के एक अभिलेख में आये ‘कायस्थ’ शब्द से कायस्थों का ऐतिहासिक असितव र्इसा की प्रथम शती से ही स्वीकार किया जा सकता है। दिल्ली-आगरा मार्ग पर सिथत गोवद्र्धन बार्इ-पास के निकट एक कम्पाउण्ड में नींव खोदते समय शीशविहीन बुद्ध की एक प्रतिमा मिली जिसके पादपीठ पर प्रथम शती र्इ. के अक्षरों वाली ब्राáी लिपी में एक छोटा-सा लेख अंकित है जिसमें एक वंश की तीन पीढि़यों के नाम दिये गये है। – कायस्थ भêप्रिय, पिता भêसिेन तथा पितामह का नाम भêहिसितन। कायस्थ भê प्रिय ने उä बुद्ध प्रतिमा की स्थापना कवार्इ थी। भê प्रिय के पिता का नाम भêसिेन तथा पितामाह का नाम भêहिसितन था।

यहाँ पर केवल भê्रिप्रिय के नाम के आगे ‘कायस्थ’ शब्द दिया गया है, उसके पिता भêसिेन तथा पितामह भêहिसितन कायस्थ नहीं थे। स्पष्ठ है कि यहाँ भी कायस्थ शब्द जातिवाची न होकर पदवाची है। यदि ‘कायस्थ’ जातिवाची होता तो भêप्रिय की ‘कायस्थ’ पद पर नियुä किी गर्इ थी जबकि उसके पिता भêसिेन और पितामह भêहिसितन उस पद पर नहीं रहे थे, इसलीए उनके नाम के आगे ‘कायस्थ’ शब्द नहीं आया है। ऐसा जान पड़ता है कि कुषाणकाल में ‘कायस्थ’ एक उच्च पद था जिससे व्यä सिमाज में सम्मानित होता था। कम से कम प्रशासन में सम्बद्ध होने के कारण उसकी विशेष महत्ता थी तभी भêसिेन ने उपने नाम के पहले अपने पद ‘कायस्थ’ का उल्लेख करवाया था।

सी.एम.पी. डिग्री कालेज के संस्कृत विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष तथा विधान परिषद के सदस्य स्वर्गीय श्री श्यामनारायण जी का विचार था कि भêहिसितन, भêसिेन तथा भêप्रिय मथुरा के कायस्थ थे। सम्भवत: इन्हीं के वंश वाले ‘माथुर कायस्थ’ कहलाये। श्यामनारायण जी यह भी मानते थे कि मथुरा के कुषाणकाल से बहुत पहले आकर बसे हुए यूनानी भारतीय भागवत धर्म से प्रभावित होकर वैष्णव बन चुके थे जैसा कि विदिशा के निकट मिले एक यूनानी राजदूत हेलियोडोरस के स्तंभ-अभिलेख से स्पष्ट है। मथुरावासी इन्हीं वैष्णव धर्मावलम्बी यूनानियों ने जब चारों वेदों का अध्ययन किया तब चतुर्वेदी कहलाये। पर चूँकि वे विदेशी थे इसीलिए भातीय समाज में उन्हें कभी पुरोहित नहीं बनाया गया। लेकिन ये मथुरा के चतुर्वेदी केवल मथुरा कायस्थ के यहाँ पौरोहित्य किया करते थे। इस आधार पर श्री श्यामनारण जी का अनुमान था कि माथुर कायस्थ और माथुर चतुर्वेदी संभवत: दोनों के पूर्वज यूनानी रहे होंगे। देखने में भी दोनों गौर वर्ण के होते हैं। अत: उन्हें मथुरावासी यूनानी के वर्णशंकर वंशज माना जा सकता है।

संपेक्ष में कायस्थ मूलत: एक पद था जिसका असितत्व अब कुषाणकाल तक असंदिग्धरूप से स्वीकार किया जा सकता है। उस पद पर प्रतिष्ठा पाने पाले प्राय: ब्राáण हुआ करते थे। आगे चलकर कायस्थों का एक वर्ण बन गया जैसा कि जैन धर्मवलमिबयों ने बना लिया। आज अपने नाम के साथ जैन लिखने वाले प्राय: अपने बच्चों के विवाह सम्बध जैन-परिवार में ही करते हैं। जैन आज धर्म नहीं अपुति एक जातिवाची शब्द बन चुका है। ठीक यही बात कायस्थों पर लागू होती है।