‘अब आवश्यकता इस बात की है कि कायस्थ बारह नहीं, बलिक कायस्थ केवल कायस्थ है, उसे इस मत का होना पड़ेगा। सभी कायस्थों में समान रुप से विवाह आदि सम्बन्ध स्थापित किये जाने चाहिए, न कोर्इ ऊचा है न कोर्इ नीचा है।’
कायस्थ शब्द का परिचय
कायस्थ शब्द सर्व प्रथम पुराणों में धर्मराज अथवा यमराज के मंत्री के रुप में चित्रगुप्त-देव के विशेषण अथवा उपाधि के रुप में प्रयुक्त हुआ है। पुराणों से पूर्वकाल में रचित सूत्र ग्रन्थों में चित्रगुप्त का नाम तो मिलता है किन्तु उनके विशेषण के रुप में कायस्थ शब्द नहीं मिलता। इस सम्बन्ध में ‘बौधायन स्मृति’ के पृष्ठ 455 अध्याय 5 के सूत्र 140 में ‘ऊं चित्रगुप्तम तर्पयामि’ तथा कातीय तपर्ण सूत्र में ‘यमांश्चैके’।
यमाध्र्माराजाय मृत्यवेचान्तकाय च।
वैवस्वताय कालाय सर्वभूतक्षयाय च।।
औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेषिठने।
वृकोदराय चित्राय चित्रगुप्ताय ते नम:।।
एकैकस्य त्रीस्त्रीन दधाज्जलान्जुलीन।
यावज्जन्म कृतम पापम तत्क्षणादेवनश्यति।।
किन्तु पुराण काल के पश्चात बारहवीं शताब्दी में कायस्थ शब्द, श्री हर्ष विरतिचत ‘नैषधीय चरित’ में ‘दृग्गोचरोअभूदथ चित्रगुप्त: कायस्थ: उधैगर्ुणतदीय:।’ तथा इंडियन ऐणिडक्वेटी जिल्द-19 पृष्ठ 59 पंकित् 15 में ‘दक्ष: प्राज्ञो विनीतात्मा गुरुभक्त: प्रियंवद:। तृप्तो∙र्थेरौपकश्र्चासिमन कायस्थो गोमिकांगंूज:।’ प्रयुक्त हुआ। विष्णु धर्म सूत्र (विष्णु स्मृति के अध्याय 7 गधांश 3 में ‘राज्याधिकरणे तनिनयुक्त कायस्थ कृत तदध्यक्ष करं चिनिहतम राजा साक्षिकम’ के अनुसार ‘कायस्थ को राजलेखक माना गया है। क्षेमेन्द्रकृत ‘नर्ममाला’ में कायस्थ को गृह कृत्याधिपति’ अथवा ‘गृह-महत्तम’ (होम मिनिस्टर) कहा गया। इसी ग्रंथ के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में तो कायस्थ को परमेश्वर का रुप कहा गया है।
येनेदम स्वैच्छया, सर्वम, माययाम्मोहितम जगत।
स जयत्यजित: श्रीमान कायस्थ: परमेश्वर:।।
‘उत्तर गीता’ के प्रथम अध्याय के श्लोक 27 से 31 ‘काय-स्थो पि न जायते काय-स्थोपिन भुंजान: काय-स्थो पि न बाध्यते।’ के अनुसार कायस्थ को परमात्मा कहा गया है।
विष्णु धर्मोत्तर पुराण के तृतीय खण्ड 51 श्लोक 13 में ‘कायस्थ चित्रगुप्त को अन्तर्यामी कहा गया है। यथा –
‘चित्रगुप्तो विनिर्दिष्टतयात्मा सर्व-देह-ग:।
पत्रम धर्ममधर्म: च करस्था तस्य लेखिनी।।’
इतियादि के अनुसार कायस्थ शब्द कपोल कलिपत अथवा अर्वाचीन न होकर सनातन अथवा अत्यन्त प्राचीन है।
कायस्थ की व्युत्पति
पुराणों के अनुसार नवग्रहों में अनितम (नवम) केतु ग्रह की अधि देवता तथा प्रत्यधिदेवता क्रमश: ब्रह्राा जी व चित्रगुप्त जी हैं। चित्रगुप्त जी ब्रह्राा जी के ध्यान-ज-पुत्र हैं। उत्पतित से पूर्व चित्रगुप्त ब्रह्रााजी के काय (शरीर) में सिथत (‘स्थ’) थे जो ब्रह्राा के ध्यान करने से प्रकट हो गये। अत: वे ब्रह्रा-कायस्थ हुए। जो समयोपरान्त कायस्थ कहलाये। इस महाजाति के अन्तर्गत चित्रगुप्त वंशय, बंगीय, महाराष्ट्रीय, इत्यादि अवान्तर भेद तथा उनके भी उपभेद रुप सूर्यद्विज, श्रीवास्तव, निगम, गौड़, माथुर, भटटनागरादि, उत्तरराढ़ीय वारेन्द्र, वंगज, आदि कायस्थों की विविध जातियां बनी।
ब्रह्रा पुराण 21556 और शिवपुराण उमासंहिता के अध्याय 7 में चित्रगुप्त भगवान पापियों को धर्मोपदेश करते हुए जज अथवा सरकारी वकील का कार्य करते हैं। ब्रह्रावैवर्त पुराण 3236 और पदम पुराण के श्रृषिट खण्डोपनाम किया खंड अध्याय 56 के अनुसार श्री चित्रगुप्त जी यमधर्मराज के यहा दण्ड निर्धारण अर्थात जज का कार्य करते हैं।
याज्ञवल्क्य स्मृति के सप्तम शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी के टीकाकारों ने ‘कायस्थ’ शब्द का अर्थ निरुपण इस प्रकार किया है – 1. रामदय: लेखका: इत्यन्ते। 2. लेखका: गणकाश्च। 3. कराधिकृता:। 4. राजाधिकृतैलेखिका:। आदि से किया है। वृहत पराशर संहिता तथा राजा तरंगिणी 8131 ‘निसर्ग-वचका: वेश्या: कायस्थों दिविरो वणिक’ के अनुसार कायस्थ और दिविर का अलग-अलग उल्लेख मिलता है। सामान्य अर्थ में कायस्थ का अर्थ कराधिकारी (एकाउन्टस आफीसर) और दिविर का शब्द का अर्थ लेखाकार (एकाउन्टेंट) से किया जाता रहा है। राजंतरंगिणी 613 ‘कार्तानितको भिषक सभ्यो गुरुमंत्री पुरोहित: दूत: स्थेयो लेखको वा न तदाभूदपणिडत:।’
महाराज यशस्कर के राज्यकाल 939’948 र्इ0 तक ज्योतिषी, वैध, सभासद, गुरु, मंत्री, पुरोहित, जज, लेखक आदि अधिकारीकर्मचारी अ-पणिडत नहीं थे। इससे स्पष्ट होता है कि कायस्थ ब्राह्राण वर्ग में ही आते थे। उधर ब्रह्रावैवर्त पुराण प्रकृति खण्ड 288-15, के अनुसार ‘यज्जन्म ब्रह्राणो वंशेज्वलतम ब्रह्राा तेजसा। योध्यायति परम ब्रह्रा वंशम नमाम्यहम’ में भी भगवान चित्रगुप्त को ब्रह्रा-वंशी होने के कारण नमस्कार किया गया है।
कायस्थ वंश
डा0 अंगन लाल (फिरोजपुर-पंजाब) के कायस्थ वर्ण-निर्णय (उदर्ू) तथा ‘कायस्थ सर्वस्व ग्रन्थ’ के संकलनकर्ता पं0 रवीचन्द्र शास्त्री (जोधपुर-राजस्थान) के अनुसार कायस्थ नाम की एक पृथक जाति सदैव से चली आ रही थी और उन्होंने ‘क्षत्रिय’ वर्ग की जाति कह डाला किन्तु प्राचीनतम पुराणों के तथ्यों का निरुपण करने पर, वास्तविक इतिहास से परे यह कल्पना सिद्व नहीं हो पाती। ग्यारहवीं शताब्दी के एक शिलालेश में कायस्थों की यह द्विजाति उत्साह इन दोनों शकितयों से सम्पन्न राजाओं की तीसरी अखिल मंत्र शकित बढ़ाने के लिए ‘अमात्य धर्म’ का कारण बनी, मंत्री ने अपने कायस्थ-वंश-वर्णन की भूमिका का रुप इस श्लोक में स्पष्ट किया है –
‘उत्साह शकित-प्रभुशकित-भाजां प्रवर्धनायाखिल मंत्र शक्ते:।
द्विजातिरेषा पृथिवी पतीनाममात्यधर्मस्य बभूव हेतु:।
ब्रार्हस्पत्य अर्थशास्त्र अध्याय 6 सूकित में प्रपंचित अमात्य सम्पत के अन्तर्गत अप्रातिग्राहक तथा मंत्री आदि राजकीय पद-धारी बुद्विजीवियों का एक वर्ग था जो चित्रगुप्त के विधा-वंशज हुए और कायस्थ कहलाये। मेदनी-शेष में ब्राह्राणों की इसी शखा ‘नर-जाति-विशेष से सम्बोधित की गयी और जो लिपि इन्होंने प्रतिपादित किया वह ‘ब्राह्राी’ लिपि कहलायी। महाराज चित्रगुप्त देव के बारह पुत्रों – भानु, विभानु, विश्वभानुख् वीर्यवान, चारु, चित्रचारु, मतिमान, सुचारु, चारुरत, हिमवान, चित्र और अतीनिद्रय हुए जिनके वंशज क्रमश: श्रीवास्तव, सक्सेना, सूरजध्वज, निगम, कुलश्रेष्ठ, माथुर, कर्ण, भटनागर, वाल्मीक आदि कहलाये। पुराणों में कहीं-कहीं वारेन्द्र, वालभ, सेनक, अहिगण, उत्तर-राढ़ीय, दक्षिण राढ़ीय कायस्थों का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतय: ये इन्हीं वंशों में से किन्हीं वंशों के उपनाम अथवा उपवंश रहे होंगे।