भगवान चित्रगुप्त का श्याम वर्ण

भारतीय देव भावना प्राचीन है। ऋग्वेद के अगिन सूक्त से लेकर इन्द्र एवं विष्णु की प्रतिष्ठा की लम्बी यात्रा विद्वानों के शोघ का विषय रही है। अपने देवी देवताओं के रुप, आकार, वर्णादि के विचार एवं प्रतिष्ठा के निर्मित्त भारतीय मनीषा ने वैज्ञानिक और दार्शनिक रुपों में गहन मन्थन किया है। भगवान शिव का हिमधवल होना, दुगर्ाा का दशभुजी होना अथवा ब्रह्राा का चतुमर्ुख होना भारतीय चिन्ता की अनोखी उदभावना है। इसी क्रम में गोरांग एवं श्यामांग देवी देवताओं की भी परिकल्पना है। काली, राम, कृष्ण और चित्रगुप्त को छोड़ सभी देवी देवता गौर ही वर्णित किए गए हैं। इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों ने अनुदार होकर यह कह डाला कि यह अनार्य प्रभाव है। भगवान शिव के सम्बन्ध में भी यही धारणा विद्वानों में है। गौर या श्याम होना एक दार्शनिक प्रतीक है जिसका मूल आदिम शकित भावना में निहित है। यह एक प्रतीक है।

चित्रगुप्त का अर्थ ही है कि जिसका रुप (चित्र) गुप्त हो। अर्थात दृष्ट न हो। ब्रह्राा की काया से प्रकट होने के पीछे भी यही रहस्य है। चित्रहीनता की सिथति अन्धकार की ही होती है। अशेष होने के कारण काली या चित्रगुप्त का रंग न काला है न उजला। वह तो एक सत्ता मात्र है। एक ‘बीर्इग’ है जो सबके भीतर सिथत हैं। अन्धकार के रुप मं वह सभी रुपों को अपने भीतर समोये हुए सभी रुपों को मिटाकर एक तत्व के रुप में सत्ता मात्र ही अवशिष्ट रहता है।

तांत्रिकों ने काली के विषय में विचार करते हुए इसे तिरस्करिणी विधा की संज्ञा दी है। अर्थात वह जो सभी वस्तुओं को आत्मसात कर अपने में छिपा लेती है। वहां काल आकर समाप्त हो जाता है। आत्मसात करने वाली वही है, जिसका रुप रात्रि के समान है। वह शून्यरुपा बन कर निवास करती है।

चित्रगुप्त भगवान का श्यामवर्ण होना इसी तिरिस्कारिणी का धोतक है। यमाय, धर्मजाय, अनौकालाय आदि सबोध सम्बोधन पीछे यही भावना है। जीवन का अन्त और उदगम यही पाप-पुण्य का लेखा जोखा होता है। कला की चर्चा में सोलह कलाओं का उल्लेख होता है। प्रतिपदा से पूर्णिमा तक चन्द्रमा की पन्द्रह कलायें ही दृष्ट होती हैं। परन्तु इसके अतिरिक्त भी एक कला है जो सोलहवीं है और उसे उमाकला कहा जाता है। यह अमाकला अमृत रत्न उपयर्ुक्त पन्द्रह कलाएं कालस्पृष्ट है। अर्थात इनका घटना बढ़ना हो सकता है। ये कलाएं काल-राज्य में संक्रमण करती है। परन्तु अमा कला काम मुक्त है। अर्थात मा काली, जहां षकित के अक्षय स्त्रोत की कल्पना है वहीं चित्रगुप्त भी समस्त सृषिट की शकित को अपने भीतर समोए रहते हैं। चित्रगुप्त उसी कालातीत शकित प्रतीक हैं।

दीपावली की कालीपूजा के पष्चात विषेष महत्वपूर्ण यमद्वितीया पूजा है। इस दिन सित्रया कालिख लगी हाडी और नागफनी जाति की कांटेदार पतितयों को लेकर पूजा करती हैं। यमराज को साक्षी रख अपने परिवार के सभी सदस्यों को मरने का शाप देती हैं। मृत्यु के विधान को कालिका बन कर स्वीकार करती हैं। पुन: जगदधात्री बन कर अपनी जिव्हा में कांटा गड़ा कर उन्हें जीने का आर्षीवाद देकर अकाल मृत्यु के प्रतीक हांडी को मूसल से चूरचूर कर डालती है। एक ओर घरों में यह पूजा सित्रयों द्वारा तथा भगवान चित्रगुप्त की पूजा पुरुषों के द्वारा की जाती है। तब चित्रगुप्त के आर्षीवाद से अकाल काल पर विजय की कामना की जाती है।

भगवान राम और कृष्ण के श्याम रुपों के पीछे यही भावना है। राम और कृष्ण का अवतार अन्य अवतारों की भाति नहीं। ये अवतार अंषावतार थे। राम और कृष्ण पूर्णावतार ही नहीं, स्वंय ब्रह्राा ही हैं। ब्रह्रा कालातीत है। अत: उसका भी श्याम वर्ण ही होगा। राम और कृष्ण वर्ण की भी दार्षनिक व्याख्या है।

(अवकाष प्राप्त यूनिवर्सिटी प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग,
बिहार विष्वविधालय साकेत, नयाटोला, मुजफफरपुर।)