भगवान चित्रगुप्त का प्रादुर्भाव

-चित्रांश श्यामलाल श्रीवास्तव

 

पुराणों के आधार पर हमने ऐसा माना है कि प्रत्येक युग के अंत में एक-एक अवतार ऐसे समय में होता है जब संसार का और विषेष रुप से देवताओं का कार्य सुचारु रुप से नहीं चलता और उनके कार्य में लगातार विध्न बाधायें पड़ने लगती हैं तथा उनको कोर्इ भी मार्ग दिखार्इ नहीं देता है तभी सभी देवता ब्रहमा जी को आगे कर उस आदि शकित पारब्रहम परमेश्वर, जिसका वर्णन वेद पुराणों में मिलता है तथा जिसको हम देख नहीं सकते, जिसका नाम चित्रगुप्त है असका ध्यान करते हैं और वह आदि शकित पारब्रह्रा परमेश्वर हैं। उन देवताओं की सहायता के हेतु संसार का कार्य सुचारु रुप से चलाने के लिए समय-समय पर अवतार होता है।

त्रेता युग के अन्त में दूसरे कारणों के साथ-साथ रावण का आतंक बहुत ही बड़ा-चढ़ा हुआ था, इसलिए यह रामावतार का कारण बन गया।

द्वापर युग के अन्त में कर्इ कारणों के साथ-साथ कंस का आतंक बढ़ा हुआ था, इसी से यह कृष्ण अवतार का कारण बन गया। इसी प्रकार सतयुग में कर्इ कारणों के साथ-साथ दैत्य एवं दानवों का आतंक काफी बढ़ा हुआ था, इसलिए यह चित्रगुप्त जी महाराज के अवतार का कारण बन गया।

सतयुग मे देवताओं एवं दैत्यों के बडे़-बड़े विकराल युद्ध हुये हैं। इस युद्ध में देवता हार गये और अन्त में अपना राज-पाट खो दिया। इन्द्र महाराज को न जाने कितनी बार अपना सिंहासन छोड़ना पडा और धर्मराज के यहा स्वर्ग में जगह नहीं थी तथा सम्पूर्ण नरक खाली पड़ा था क्योंकि वह दैत्यों कि मनमानी करने से रोकने में असमर्थ थे, जो स्पर्श में घुस जाते थे और धर्मराज को सिंहासन से धकेल देते थे। उस समय धर्मराज को यह आवश्यकता पड़ी की कोर्इ उनकी सहायता करे। वह बारी बारी से सभी देवताओं की सहायता लेने गये, परन्तु कोर्इ भी देवता उनकी सहायता करने के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि वे उन दैत्यों का मुकाबला करने में असमर्थ थे। जब धर्मराज को कोर्इ उपाय न सूझा तब ब्रह्राजी के पास गये। देवता ब्रह्रा जी के पास सहायता के लिए जाते हैं, वे देवता की नाना प्रकार से सहायता करते हैं।

जब धर्मराज ब्रह्रा जी के पास गये और अपना सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया तब ब्रह्राजी ने उनकी सहायता करने का आश्वासन देकर विदा किया और स्वंय सहायता करने हेतु ध्यानावस्थित हो गये।

सहायता हेतु सामर्थ्यवान ब्रह्रा अपने इष्टदेव, उस पारब्रह्रा परमेश्वर, उस महान एवं सर्व शकितमान आत्मा जिसका चित्र सदैव गुप्त रहता है, उसके ध्यान में मग्न हो गये और इसी ध्यान मग्न अवस्था में 11 हजार वर्ष व्यतीत हो गये। अन्त में उनके इष्ट देव उन पर प्रसन्न हुए उनको दर्शन दिये। जब ब्रह्रा जी ने भगवान चित्रगुप्त जी के दर्शन पाये तो अकस्मात, उनके मुख से निकल पड़ा ”चित्रगुप्त कायस्थ” चित्रगुप्त का अर्थ स्पष्ट है, वह चित्र जो सदा ही गुप्त रहता हो और यह शब्द भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार कायस्थ का अर्थ भी स्पष्ट है ‘जो काया में स्थ है अर्थात स्थित है, वही कायस्थ है। इसीलिए कहा भी गया है :

‘काये स्थित: स: कायस्थ:’

इसको भी भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका अर्थ सर्व व्यापक तथा सर्वशक्तिमान होता है।

पुराणों के आधार पर जब-जब छिपी शक्ति अवतरित होती है, तब उसका चतुर्भुजी रुप ही होता है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम जब अवतरित हुए तब कौसल्या जी को उन्होंने बालक रुप में रोदन करने के पूर्व चतुर्भुजी रुप में दर्शन दिये इसी प्रकार योगिराज भगवान कृष्ण ने कंस के कारागार के अन्दर ही वासुदेव जी के गोकुल पहुचाने के पूर्व ही देवकी जी को अपने चतुर्भुजी रुप में ही दर्शन दिये। परन्तु उनके हाथ में शंख, चक्र, गदा पदम नहीं थे।

भगवान चित्रगुप्त जी के हाथ में मसि पात्र (दवात), लेखनी (कलम), कृपाण (तलवार), तथा पुस्तक उनके प्रादुर्भाव के समय ही विधमान थे। यह इस बात का धोतक है कि ब्रह्राजी को मूक रुप से संकेत थे कि ‘हे ब्रह्रा ! तू मत घबरा तेरी सारी व्यवस्था और सम्पूर्ण समस्यायें अब हल हो जायेंगी” अर्थात मैं सम्पूर्ण लोकों का सारा विधान बना कर लेखा-जोखा लिखकर तुम्हारी समस्या का हल कर दूंगा। जन्म-मरण, खान-पान किस प्रकार हो और मृत्यु के पश्चात उस प्राणी के साथ कैसा व्यवहार किया जाय, यह सम्पूर्ण विवरण लिख कर तैयार किये देता हू। मेरे लिखने के अनुसार कोर्इ भी प्राणी चाहे देवता हो अथवा दैत्य, मनुष्य हो अथवा अन्य कोर्इ इनसे परे भी हो, यदि इन नियमों में किसी प्रकार बाधा उत्पन्न करेगा अथवा इनके विरुद्ध चलेगा उसको मैं इस तलवार के द्वारा समाप्त कर दूंगा और वह प्राणी नाश को प्राप्त होगा यह मेरा वचन है।

पदम पुराण के सृष्टि खण्ड पर यदि हम ध्यान दे तो उसमें लिखा है कि भगवान श्री चित्रगुप्त के प्रादुर्भाव के पश्चात ब्रह्राजी से उनकी वार्ता होने पर ब्रह्रा जी ने उनसे कहा कि वह शक्ति की आराधना करें। चुकि वह शक्ति सृष्टि में साकार है इसलिए सृष्टि के नियमानुसार उसको कोर्इ स्थान अवश्य चाहिए जहा पर विधान की पूर्ति कर सके। उस समय दुष्टों का विनाश करने को कोर्इ व्यवस्था कर सके इसीलिए भगवान श्री चित्रगुप्त जी ने कुछ काल के लिए अवंतिकापुर (उज्जैन) में जाकर निवास किया।

जो पहली प्रमुख विशेषता भगवान चित्रगुप्त जी के अवतार में हमारे सामने आती है, वह यह है कि प्रकट होते समय ही भगवान चित्रगुप्त जी के हाथों में कलम, दवात, पुस्तक और तलवार थी तथा वे उनके साथ सदा रहीं और रहेंगी। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के जन्म के समय उनके हाथ में धनुष-बाण नहीं था और वह उनको सांसारिक मनुष्यों के द्वारा उस समय दिया गया जब वह खेलने योग्य हुए तथा योगिराज भगवान कृष्ण जी के हाथ में बांसुरी नहीं थी और वह उन्हें पाच वर्ष की अवस्था में दी गर्इ।

दूसरी विशेषता जो हमारे सामने भगवान चित्रगुप्त जी के प्रादुभाव के समय आती है वह यह कि ब्रह्रा जी को 11 हजार वर्ष की तपस्या के बाद उनकी समाधि खुलने पर जब भगवान चित्रगुप्त ने दर्शन दिये तब उनके सामने प्रत्यक्ष दिखार्इ दिया। किसी के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुए जब कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम कौसल्या नन्दन और योगिराज कृष्ण देवकी नन्दन कहलाते हैं।

तीसरी विशेषता जो हमारे सामने है वह यह कि भगवान जिस रुप में प्रकट हुए और जिस कद में ब्रह्रा जी को दर्शन दिये उसी कद में रहे। संसारी जीवों की तरह बढ़े नहीं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण पैदा होने के बाद संसारिक जीवो की तरह बढ़ते रहे। गोद में खिलाये गये, फिर घुटनों चले, फिर खड़़े होकर पैदल चले और जवान हुए। जवानी में तरह तरह के कष्ट उठाये और लीलाऐं की, अपने जीवन का अन्त करके अन्तध्र्यान हो गये। लेकिन भगवान चित्रगुप्त जी न तो पैदा हुए, न गोद में खिलाये गये, न घुटनों चले एसलिए खड़े होकर पैदल चलने और जवान होने का सवाल ही नहीं उठता है, उनको जीवन का न तो अन्त हुआ। वह जिस तरह प्रकट हुये उसी तरह रहे और सदा रहेंगे।

चौथी विशेषता जो हमारे सामने बहुत ज्यादा प्रत्यक्ष है वह यह है कि भगवान चित्रगुप्त जी को किसी गुरु ने विधा नहीं दी बल्कि विधा का प्रसार ही वहा से होता है और भगवान चित्रगुप्त जी ने इसका प्रसार किया जबकि मर्यादा पुरुषोत्तम और योगिराज श्री कृष्ण जी ने अपने अपने गुरुओं से हर तरह की विधा पार्इ।

पांचवी विशेषता जो आपकी नजर के सामने है कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण को अन्तध्र्यान होना पड़ा जब कि भगवान चित्रगुप्त जी के अन्तध्र्यान होने का सवाल ही नहीं उठता। वह जब से प्रकट हुए हैं आज तक हैं और सदा रहेंगे, यदि वे अन्तध्र्यान हो गये तो प्रलय हो जायेगी। यह संसार ही नहीं रहेगा।

ये विशेषतायें आपने उनके निजी चरित्र में पायी अब जरा उनकी सांसारिक जीवनी पर नजर डालिए। भगवान चित्रगुप्तजी ने जो कुछ भी किया वह सारे मानव के लिए किया, क्योंकि वह समदर्शी थे। असली अर्थ में ऐसा नहीं हुआ कि सिर्फ एक जगह के लोगों को फायदा हुआ हो और दूसरे को नुकसान हुआ हो या कुछ लोगों ने जो कि एक सम्प्रदाय या संगठन थे उनकी शक्ति से लाभ उठाया हो और कुछ बरबाद हो गये हों।

भगवान चित्रगुप्त जी ने सब से पहले लेखनी कला का प्रसार किया जिसका लाभ संसार के सारे जीव आज तक उठा रहे हैं। आज जो कुछ भी उन्नति हमें दिखार्इ देती है वह असम्भव होती यदि मानव के पास लेखनी कला का ज्ञान न होता।

वह महान प्रशासक, समाज रक्षक ब्रह्रा और क्षात्र धर्म के ज्ञाता तथा न्यायमूर्ति थे, उनमें चूकि ब्राह्रा और क्षात्र धर्म की झलकिया समन्वित रुप में पार्इ जाती हैं इसलिए उनको श्याम वर्ण कहा जाता है। श्याम वर्ण हम उसी को कह सकते हैं जिनमें ब्रह्राणत्व और क्षत्रित्व का समन्वय पाया जाय और इसीलिए हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण को भी श्यामवर्ण कहते हैं।

भगवान चित्रगुप्त जी ने उस समय के देव और दैत्यों की घोर लड़ार्इ को शान्त किया और सतयुग के बाद आपने कभी किसी पुस्तक में न पढ़ा होगा कि दैत्यों ने सारी सृष्टि को नष्ट-भृष्ट कर दिया हो या देवताओं को अपने कार्य में कुछ कठिनार्इ अनुभव हुर्इ हो। रामायण में कुछ जिक्र रावण का आया है लेकिन वह सिर्फ लंका पर राज्य करता था और सारा भारतवर्ष दूसरे राजाओं के अधिकार में था। यदि ऐसा न होता तो सीता जी का स्वयंवर होना सम्भव न था। दूसरे रावण दैत्य या दानव वंश का नहीं था। वह पुलस्त्य ऋषि का पोता था और ब्राह्राण वंश का था किन्तु उसकी प्रवृतित राक्षसी हो गर्इ थी। इसी तरह श्री कृष्ण जी के समय एक दो राक्षसों का वर्णन महाभारत में आया है परन्तु आज कल के युग में तो राक्षस देखने में नहीं आता और वह भयंकर दैत्य जो देवताओं से सदैव लड़ते थे, भगवान चित्रगुप्त जी के अवतार लेने के बाद बिल्कुल समाप्त हो गये।

भगवान चित्रगुप्त जी ने समाज के अन्दर उत्पन्न हुये विघटन को नष्ट करके उसमें नवीनता का संचार किया और उसको एकता के साचे में ढाला तभी उस समय के अन्याय, अव्यवस्था और अज्ञान को दूर करके राष्ट्र को एक सूत्र में बाधने और न्याय व्यवस्था को द्रढ करने में समर्थ हुये। भगवान चित्रगुप्त जी ने जिस परम्परा की नींव डाली है, उसकी आज संसार को अत्यन्त आवश्यकता है। विशेषकर आज के भारत को, जिसने एक लम्बे समय के संघर्ष और कठिनार्इयों के पश्चात जिस स्वतन्त्रता को प्राप्त किया है, उसको अमर करने के लिए हमें अथवा भारतवर्ष को एक मिली जुली सभ्यता और संस्कृति की आवश्यकता है जो राष्ट्र के संगठन के लिए नितांत आवश्यक है। भारतीय संविधान में जिस राष्ट्र की कल्पना की है उसकी नींव ही मिली-जुली सभ्यता और संस्कृति है। अत: राष्ट्र के कल्याण को लक्ष्य में रखकर उसकों एक सूत्र में बांधने और उसकी परम वैभव के पद पर आरुढ़ करने में सिर्फ भगवान चित्रगुप्त जी के आदेशों पर चलना हमार कर्तव्य हो जाता है।

भगवान चित्रगुप्त जी ने प्रादुर्भाव के बाद कुछ दिन अवंतिकापुर (उज्जैन) में रह कर संसारी संविधान का निर्णय किया। ऐसा करना उनके लिए नितांत आवश्यक था क्योंकि उनका प्रादुभाव ही धर्म और अधर्म के न्याय करने के हेतु हुआ था। कुछ समय पश्चात जब ब्रह्राजी ने अपनी ज्ञानेंद्रियों द्वारा जान लिया कि विधान तैयार हो गया है और उसकी व्यवस्था भी सुवण है तब ब्रह्राजी ने सब देवताओं और ऋषियों के साथ अवंतिकापुर में पहुच कर एक बड़ा यज्ञ किया। उसी यज्ञ के समय सूर्यदेव ने भगवान शिव के कहने से सुशर्मा (धर्मशर्मा) की कन्या जिसका नाम इरावती (शोभावती) था जो सूर्यदेव के पास ऋषि छोड़ आये थे तथा अपनी पौत्री श्राद्वदेव मनु की पुत्री जिसका नाम दक्षिणा (ननिदनी) था, दोनों का विवाह भगवान चित्रगुप्त जी से कर दिया। श्री ब्रह्रा जी ने सभी देवताओं के साथ उस विधान को ग्रहण किया जो भगवान चित्रगुप्त जी ने बनाया था तथा वह सारी व्यवस्था मान ली गर्इ जो उनके द्वारा धर्म और अधर्म के निर्णय हेतु की गर्इ थी। सबने मिल कर श्री चित्रगुप्त जी को वरदान दिये कि उनके वाक्य अजर और अमर हों, उनका न्याय अटल हो और उनकी वाणी तथा आदेश हर एक को मान्य होंगे। यज्ञ की समाप्ति पर सभी देवता तथा ऋषि अपने अपने स्थान को चले गये।

अब मैं आपका ध्यान पुराणों की ओर आकर्षित करता हू। भगवान चित्रगुप्त जी की व्यवस्था के अनुसार ब्रह्रा जी को प्राणियों की उत्पत्ति या पैदा करने का कार्य सोंपा गया, विष्णु जी को उन प्राणियों के पालन-पोषण का कार्य सोंपा गया और शिवशंकर भोलेनाथ को मृत्यु या संहार का कार्य सोंपा गया।

ब्रह्रा जी ने जड़ और चेतन दो प्रकार की उत्पत्ति की, जितनी चीजें ब्रह्राजी ने बनायी उनमें से प्रत्येक के चार-चार भाग किये अर्थात पुराणों के आधार पर हमारा संसार और उसकी नीतिया चतुर्मुखी हो गयीं इसी कारण ब्रह्रा जी को चतुर्मुखी दर्शाया गया है। वृक्ष में जड़, तना, शाखायें और पशुओं में चौपायें जिनके चार पैर हैं, पक्षियों में दो पैर और मनुष्यों में दो हाथ दो पैर हैं। जब मनुष्य संसार का कार्य आरम्भ करता है तो महींने में चार सप्ताह माने जाते हैं और ऋतुयें भी चार ही मानी जाती हैं – जाड़ा, गर्मी, बसन्त और वर्षा, दिन-रात के भी चार भाग किये गये हैं – प्रात: काल, मध्यान्ह, सांयकाल और रात्रि। हमने अपने जीवन को भी चार ही भागों में बांटा – बाल्यावस्था, ग्रहस्थाश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और सन्यास। अपनी गति भी चार ही मानी हैं – प्रत्यक्ष के तीन और सूक्ष्म में एक, पुराणों के आधार पर हमारी प्रत्येक गति का एक-एक अलग-अलग मालिक है। तीन का वर्णन मैंने ऊपर किया है जैसे ब्रह्राजी को जन्म देवता, पालन-पोषण के लिए विष्णु जी और संहार के लिए भगवान शिव। यह हमारी तीनों प्रत्यक्ष गतियों पर प्रशासन करने के देव हैं। इनको हम भली भाति जानते भी हैं, हमने कभी सोचने की चेष्टा नहीं की कि हमारी चतुर्थ गति अर्थात मरने के पश्चात वह सुख से रहना चाहता है। स्वर्ग जाना चाहता है मोक्ष चाहता है। यदि आप उसी देवता या मालिक की पूजा न करें तो आपको यह सब बातें कैसे मिल सकती है। यह कार्य भगवान चित्रगुप्त जी स्वयं करते हैं और वही इसके मालिक हैं। पहली तीनों सांसारिक गतियां इसी के ऊपर निर्भर हैं।

आप मानते हैं कि हमारा जन्म अपने पिछले जन्म के कर्मो के ऊपर निर्भर है और इसी के आधार पर होगा। भगवान चित्रगुप्त ही हर एक जीव के चित्र में गुप्त रुप से रहकर उसके कर्मो का लेखा-जोखा करते हैं और मरने के बाद उस प्राणी से उसके पापों का जवाब तलब करते हैं, उनके लिखने के अनुसार ही हमारा जन्म तिल भर इधर-उधर नहीं हो सकता। इसलिए भगवान चित्रगुप्त जी जब ब्रह्रा को अपना आदेश देते हैं कि अमुक प्राणी का जन्म कुत्ते का होगा और अमुक प्राणी फकीर के घर पैदा होगा तथा अमुक प्राणी बैल बन कर बोझा ढोयेगा, तो ब्रह्रा जी प्राणीयों का जन्म उसी आदेशानुसार देते हैं। वह अपने कार्य में स्वतंत्र नहीं है और जब तक भगवान चित्रगुप्त जी उस प्राणी को ब्रह्रा जी के पास जन्म के लिए न भेजें उस समय तक उसका जन्म नहीं होगा।

इसी तरह विष्णु जी भी जब हम लोगों को खाने को देते हैं या पालते हैं तो भगवान चित्रगुप्त जी के आदेश की प्रतीक्षा करते हैं और जिस प्रकार भगवान चित्रगुप्त जी हमारे कर्म में लिख देते हैं उसी के अनुसार वे हमको सूखी रोटी या दूध मलार्इ अथवा और भी अनेकों प्रकार के व्यंजन दे सकते हैं और यदि हमारे कर्म में हमकों फांका ही लिखा है या भूखा ही रहना है तो विष्णु जी हम पर तरस खाने के बाद भी हमारी कोर्इ सहायता नहीं कर सकते क्योंकि वे अपने कार्य में स्वतन्त्र नहीं और विधान के अन्तर्गत अपना कार्य करते हैं तथा जिस प्रकार भगवान चित्रगुप्त हमारी जीविका निर्धारित कर देते हैं उसी आदेशानुसार श्री विष्णु जी हमारा पालन-पोषण करते हैं।

भगवान शिव चित्रगुप्त जी के आदेशानुसार संहार कार्य करते हैं। जिस तरह जिसके कर्म में मृत्यु लिखी है उसी तरह उसको प्राप्त होती है। कोर्इ रेल दुर्घटना में अपने प्राणों को गंवाता है किसी की हृदय गति रुक जाती है, कोर्इ ठोकर खाकर ही मर जाता है, कोर्इ महीनों खाट पर पड़ा-पड़ा सड़ता रहता है और लोग प्रार्थना करते हैं कि इसके प्राण जल्दि निकल जायें। भगवान शिव को यदि उस प्राणी पर तरस भी आ जाये तो उसके प्राण बिना चित्रगुप्त जी की आज्ञा के नहीं निकल सकते क्योंकि कार्य में स्वतन्त्र नहीं हैं।

आपने किसी पुस्तक में कहीं भी नहीं पढ़ा होगा कि भगवान चित्रगुप्त जी से कोर्इ कहे कि अमुक प्राणी के कर्म इस तरह लिख दीजिए या अमुक प्राणी के जन्म लेने में वह कुछ हेर-फेर कर दें। वे अपने कार्य में स्वतन्त्र हैं और जैसा वे न्यायोचित समझते हैं वैसा ही करते हैं। वे न्यायाधीश हैं और हर एक के साथ पूरा-पूरा न्याय करते हैं और देवता उनके आदेश मानते हैं। तो मित्रो आपने देखा कि जिन देवताओं की आप दिन-रात पूजा करते हैं वे आपकी सिफारिश नहीं कर सकते हैं और आप उन सर्वशक्तिमान भगवान चित्रगुप्त जी को भूले हुए हैं जिनके इशारों पर समस्त देवता चल रहे हैं। वह हमको सदा ही सही कार्य करने की प्रेरणा देते हैं और हमारे अन्त: करण से बोल कर संकेत करते रहते हैं। उनके आदेश पर चलना ही हमारा कर्तव्य है और उनकी पूजा सारे समाज और विश्व के लिये अनिवार्य है।

दिवानापारा, राजनादंगाव (म0प्र0
सांभार-चित्रांश रामनन्दन प्रसाद
एडवोकेट पटना द्वारा शोधग्रन्भ
‘चित्रगुप्त मानस’ से