कायस्थों का वर्णन धार्मिक और धर्म निरपेक्ष दोनों प्रकार के ग्रन्थों में मिलता है। इनमें कुछ इस प्रकार है :-
हिन्दुओं के प्राचीनतम ग्रन्थ ‘ऋग्वेद’ के अनुसार कायस्थों के पूर्व पुरुष श्री चित्रगुप्त एक शकितशाली क्षत्रिय थे। वह राजा कहलाते हैं। ‘कृष्ण यजुर्वेद’ की ‘मैत्रायनी संहिता’ में उनको एक आश्चर्य जनक शासक के रुप में दर्शाया गया है। वह ब्रह्राा के पुत्र थे तथा इन्द्र से भी अधिक शकितशाली थे। इन्द्र परिवर्तित होते रहते हैं जबकि वह स्थायी हैं। ऋग्वेद के अस्वालयन गृह सूत्र में मंत्र का उल्लेख जिसका उच्चारण बलि देते समय चित्रगुप्त के आवहान हेतु किया जाता है –
‘मैं श्री चित्रगुप्त का आव्हान करता हू जो सरस्वती नदी के उत्तर-पशिचम (यहां अल्तार्इ पर्वत से संकेत है जहा यम की राजधानी थी) में रहने वाले लोगों की वेशभूषा धारण करते हैं, जो देखने में सुन्दर, कागज कलम धारी दो हाथों वाले हैं, जिनकी विरोधी देवी केतु है।’
श्री चित्रगुप्तजी की पूजा में उच्चारित मंत्रों का उल्लेख ‘दाना मन्जुखां’ के अधिकांश भागों में वर्णित है। चित्रगुप्तजी का आव्हान नियमित रुप से भोजन के समय किया जाता है। स्तुति पश्चात प्रत्येक व्यकित 4 या 5 ग्रास भोजन अपनी दाहिनी ओर, धरती पर रखता है। यह चित्र अथवा चित्रगुप्तजी हेतु आहुतिया कहलाती हैं। ग्रास रखते समय यों कहना चाहिए ‘समिर्पित है चित्र को चित्रगुप्त को, यम को, यम धर्म को भूर्भ बटेश्वर को’। सभी ब्राह्राण भोजन से पूर्व चित्रगुप्त को चावल के पिण्ड समर्पित करते हैं।
सोलह कनागतों में श्राद्व के समय भी उनका आव्हान किया जाता है। अथर्ववेद (सायण भाष्य) के अनुसार राजा चित्र वैवस्वत, विवास्व या आदित्य के पुत्र थे। उन्होंने यज्ञ अगिनहोत्र और तप द्वारा धर्मराज का पद प्राप्त किया। सभी प्राणियों में श्रेष्ठ चित्र ने सूर्य भगवान की तपस्या की जिन्होंने प्रसन्न होकर राजा चित्र से वर मांगने को कहा। इस पर चित्र ने कहा ‘भगवान यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसी शकित प्रदान करें जिससे मैं कायस्थ अथवा सर्वज्ञ हो जाऊं।
4. चित्रगुप्त वंश निर्णय भाग-। पृष्ठ 49-53 और भाग।। बा-कामता प्रसाद बनारस द्वारा
5. इथनोलाजिकल हैण्डबुक फार एन0 डब्लू पी0 एण्ड अवध 1890 पृष्ठ 90-105 डबल्यू क्रुक द्वारा।
(वस्तुत: तीसरी शताब्दी में जब याज्ञवल्कय स्मृति का संकलन हुआ, कायस्थ एक भिन्न प्रकार के पदाधिकारी थे। वे लेखपाल अथवा लेखाकार थे। वे मुख्य प्रशासकीय अधिकारी भी थे। मनुस्मृति में जिसमें समय मिश्र जातियों का वर्णन है, कायस्थ शब्द का न होना यह दर्शाता है कि वे ब्राह्राण अथवा क्षत्रिय वर्ण के अन्तर्गत आते हैं। मनु से सम्बनिधत विभिन्न ‘भाष्यों’ में सबसे प्राचीन ‘मेघातिषि’ द्वारा सन 1500 र्इ0 में लिखी गर्इ। इसमें भी कायस्थ जाति का उल्लेख नहीं है। किन्तु कुलुकभटट ने जिन्होेंने अपना भाष्य बनारस में सन 1550 र्इ0 में लिख, सर्व प्रथम बिना किसी आधार के शब्द ‘करन’ को कायस्थ का पर्यायवाची बताया। उन्होने ‘करन’ को मनुस्मृति में वर्णित क्षत्रिय वृतित का न होकर एक वैश्य पिता और शूद्र माता से उत्पन्न बताया। मनु के दूसरे भाष्यकार कामधेनु ने चित्रगुप्त कायस्थों का क्षत्रिय रुप दर्शाया है। इसी प्रकार याज्ञवल्कय के सर्वप्रमुख टीकाकार और मित्ताक्षर के संग्राहक बिजनेश्वर ने लिखा है कि एक राजा अपने प्रजाजनों को विशेषकर कायस्थों के उत्पीड़न से बचावे जो कि राजवल्लभ (राजा के कृपापात्र) चतुर और उदण्ड हैं। याज्ञवल्कय के एक अन्य टीकाकार ने अपनी ‘दपिकालिका’ में लिखा है कि शासकों से सम्बन्ध के कारण कायस्थ अत्यन्त प्रभावशाली थे।)
(अपनी पुस्तक ‘ट्राइब्स एण्ड कास्टस आफ बंगाल ‘भाग-। पृष्ठ 438-453 में मिस्टर एच0 एच0 राइजेल ने कायस्थो का वर्णन एक बहुसंख्यक प्रभावशाली जाति के रुप में किया है उनकी उत्पतित बहुत विवादित रही है। मनु ने कहीं भी इनका उल्लेख नहीं है और वे स्वयं उस सिद्वान्त को नकारते रहे हैं, जिसके अनुसार उनके पूर्वज करन एक वैश्य पिता और शूद्र माता की सन्तति कहे जाते है।
कायस्थों का वर्ण एक जाति विशेष के रुप में सर्व प्रथम याज्ञवल्क्य (राज्य धर्म का श्लोक 336) में मिलता है जिसके अनुसार वे लेखपाल और ग्राम लेखाकार थे। इसी स्मृति में संंकलन कर्ता ने कहा है कि एक राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा को ठग, चोर, दुष्ट तथा अन्य लोगों, विशेष कर कायस्थों के उत्पीड़न से बचावें।)
मनु पर आधारित नारद स्मृति में पहली बार न्याय व्यवस्था में धर्म को सीमित किया गया है। इसके अनुसार कायस्थ शानित एवं युद्व के मंत्री थे। कायस्थों के विषय में दूसरा उल्लेख विष्णु स्मृति में मिलता है (अपपप.3) जहां कायस्थों को न्यायाधीश के साथ संयुक्त कर निर्धारक अथवा आयुक्त कहा गया, (इसमें कहा गया है कि कोर्इ भी आलेख राजा द्वारा प्रमाणित माना जावेगा यह वह राजकीय न्यायालय में राजा द्वारा नियुक्त कायस्थ ने लिखा हो और उस पर स्वंय न्यायाधीश ने हस्ताक्षर किया है।) ठीक उसी प्रकार जैसा कि हम नि:सन्देह ‘मृच्छकटिका’ के अंक में श्रेषिठन के साथ पाते हैं। इस संस्कृत नाटक में कायस्थ और श्रेषिठन पात्रों की भांति ही गुप्त कालीन (म्चण् प्दकण् खण्ड प्ग् पृष्ठ 113-145) दामोदर ताम्रपत्र लेखों में भी उनको नगर व्यवस्था हेतु सहयोगी के रुप में दर्शाया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि ‘मृच्छकटिका’ के अंक 9 में चारुदत्त ने कुशाल की न्यायवस्था से सम्बद्व श्रेषिठन और कायस्थों हेतु आदेश दिया था। किन्तु मनु (प्प्.26) के अनुसार केवल ब्राह्राण ही कुशाल थे। अत: ऐसा प्रतीत होता है कि श्रेषिठन और कायस्थ दोनों ही ब्राह्राण थे। मृच्छकटिका’ का लेखक मनु से परिचित था और उनका आदर भी करता था। जो उसी अंक में न्यायाधीश और कानून के प्रति कहे गये वाक्यों से स्पष्ट होता है। द इंडियन एण्टीकैरीं फार मार्च 1982 डा0 भण्डारकर (बम्बर्इ संस्करण)।
‘पाराशर स्मृति’ में कायस्थों का उल्लेख मजिस्ट्रेट, न्यायाधीश और मुख्य कार्यकारी के रुप में मिलता है। इसमें शासक को निर्देश दिया गया है कि वह लेखन कला में निपुण कायस्थों की उत्पतित करें। सुक्रनिता (420) में शासक को आदेश है कि वह गावों की रक्षा हेतु ब्राह्राण लेखन कार्य के लिए कायस्थ, कर वसूलने के लिए वैश्य और सेवक के रुप में शूद्र की नियुकित करे। व्यास स्मृति के अनुसार जैसा कि मित्र मिश्रा ने ‘वीरमित्रोदय’ में कहा है, लेखक और लेखाकार को भाषा में प्रवीण, शारीरिक व मानसिक रुप से स्वस्थ तथा क्रोध पर नियंत्रण रखने वाला होना चाहिए। वह कायर न हो, सत्यवादी हो, और स्पष्ट रुप में लेखन कार्य कर सके। ऐसे ही व्यकित को राजकीय न्यायालय में नियुक्त किया जाना चाहिए। लेखपाल के रुप में ऐसे व्यकित को नियुक्त किया जावे जो खगोल विधा में पारंगत हो, नक्षत्रों की अक्षांश और देशान्तर रेखाओं परिसिथति से पूर्णतया भिन्न हो और र्इश्वरीय आदेशों यथा वेद, पुराण और स्मृति की शिक्षा प्राप्त हो। लेखकों और लेखाकारों के विषय में ऐसा ही मत बृहस्पति स्मृति का भी है। ‘उष्ना स्मृति’ के अनुसार प्रत्येक नगर और प्रमुख गाव में 6 अधिकारी होना चाहिए – पुलिस प्रमुख, ग्राम प्रमुख, लगान वसूली करने वाला, लेखाकार, कर संग्राहक और प्रहरी। लेखाकार गणना में पारंगत हो और उस प्रदेश की भाषा से भलीभांति परिचित हो। ‘व्यास स्मृति’ में आदेश हैं कि शासक को लेखक और लेखाकार के पद पर ऐसे व्यकित को नियुक्त करना चाहिए जो वेद, पुराण और स्मृतियों में पारंगत हो। किसी भी आलेख पर शासक द्वारा हस्ताक्षर करने के लिए यह आवश्यक है कि वह न्यायालय से सम्बद्व कायस्थ अधिकारी द्वारा लिखा गया हो। अतएव स्मृतियों के अनुसार कायस्थ एक राज्य अधिकारी के रुप में कार्यरत थे। वे लेखक, लेखाकार, कर संग्रहक, मजिस्ट्रेट और शांति और युद्व के मंत्री भी हो सकते थे।’
‘वशिष्ठ पद्वति’ में हम पाते हैं कि अयोध्या के राजा रामचन्द्र के विवाह के अवसर पर चित्रगुप्त के लिए आहुति दी गर्इ थी। पंडित शिवराम द्वारा बनार्इ गयी ‘कायस्थ वंशावली’ के अनुसार श्री रुद्र माथुर, अयोध्या के राजा अम्बरीष के मंत्री थे। यह पद उनकी 19 पीढि़यों तक बना रहा। उन्नीसवें मंत्री राजा बाल प्रताप स्वतंत्र होकर स्वंय राजा बन गये। उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ किया। उन्हीं के वंशज श्रुत्सखा राजा रघु के मंत्री थे। तत्पश्चात श्री रंगा राजा आज के मंत्री हुए। उनके पुत्र कमलदल महाराज दशरथ के मंत्री रहे और उनका पुत्र विचिकश महाराज रामचन्द्र का।
दी इंडियन एण्टी कैरी मार्च 1832 बम्बर्इ दी नागर ब्राह्रान्स एण्ड दी बंगाल कायस्थाज प्रोफेसर डी0 आर0 भण्डारकर।