कायस्थों की उत्पति : मिथक बनाम इतिहास

कायस्थों की उत्पतित और हिन्दू समाज में उनके स्थान के विषय में 1884 र्इ0 में अपना निर्णय देते हुए कलकत्ता के उच्च न्यायालय ने उन्हें शूद्र वर्ग में देखा। इससे क्षुब्द होकर उत्तर प्रदेश के कायस्थों ने इलाहाबाद हार्इ कोर्ट में यह तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कायस्थों की उत्पतित भिन्न है। सन 1889 में इलाहाबाद हार्इ कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के कायस्थों को क्षत्रिय मानते हुए अपना फैसला सुनाया। 23 फरवरी 1926 को पटना हार्इ कोर्ट ने उस समय तक के निर्णयों की समीक्षा करते हुए और हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर उन्हें क्षत्रिय घोषित किया।

1975 में इलाहाबाद से प्रकाशित एक पुसितका में उन्हें ब्राह्राण वर्ण का सिद्व किया गया। किन्तु ब्राह्राण उन्हें पाचवें वर्ण का मानते हैं और उनकी उत्पतित प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न बताते हैं। इसका खण्डन करते हुए पटना हार्इ कोर्ट ने कहा कि मनुस्मृति ने अध्याय 10 श्लोक 4 में मानव जाति को मात्र चार वर्णों में बांटा है। अत: कायस्थों का स्थान उन्हीं चार वर्णों में निशिचत करना पड़ेगा।

उस निर्णय में ‘यम संहिता’ के उल्लेख से यह कहा गया कि धर्मराज द्वारा अपने कठिनाइयों की शिकायत करने पर ब्रह्राा ने अपनी काया से चित्रगुप्त को उपन्न किया और उन्हें ‘कायस्थ कहा और उनसे बारह सन्तानें हुर्इ जिनसे बारह उप जातियों के कायस्थ हुये। ‘पध पुराण’ उत्तर खण्ड में उन बारह पुत्रों का विवाह नाग कन्याओं से होना बताया गया है। विभिन्न स्मृतियों के आधार पर यह भी कहा गया कि कायस्थ का काम लेखक और गणक का था और उसकी अपनी लिपि थी, जिसे कैथी कहते हैं।

पटना हार्इकोर्ट ने निर्णय दिया कि कायस्थ क्षत्रिय हैं। ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ में जो स्मृतियों और पुराणों से पुराना है, याज्ञवल्क्य ने प्रथम अध्याय के 11 वें मंत्र में कहा है कि सृषिट के आरम्भ में ब्रह्रा अकेला था। उसने पहिले ‘क्षत्र’ उत्पन्न किया। जब उससे काम न चला तो वैश्य उत्पन्न किया और जब उन दोनों से काम न चला तो शूद्र उत्पन्न किया। इस मंत्र में ब्रह्रा अलग अलग अंगों से अलग-अलग वर्णों के उत्पन्न होने की बात नहीं दुहरार्इ गर्इ है और न ‘काया’ से कायस्थ के चित्रगुप्त के उत्पन्न होने की बात कही गयी है।

धर्म ग्रन्थों की यह अलग-अलग व्याख्यायें मात्र चिन्तन का परिणाम है, किसी इतिहास या प्रमाण पर आधारित नहीं हैं। स्मृतियों और पुराणों की रचना पांचवीं से आठवीं शताब्दी र्इसवी में हुर्इ। वे ब्रह्राा द्वारा वर्णों की उत्पतित के बारे में कैसे कुछ कह सकती हैं?

अत: आज के वैज्ञानिक युग में हमें उन ग्रंथों की कल्पना की मूल व्याख्या से अलग हट कर विचार करना होगा। यदि कायस्थ पटना हार्इ कोर्ट के निर्णय के अनुसार अपने को क्षत्रिय मानते रहे तो उसका तार्किक परिणाम यह होगा कि वे ब्राह्राण से नीचे हैं जिन्हें क्षत्रिय भी क्षत्रिय नहीं मानते। अत: वे दूसरे दर्जे के क्षत्रिय हुये। आज हम यह मानते हैं कि सभी मनुष्य बराबर हैं। वैदिक युग में ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्ण नहीं थे। सभी व्यकित अपने को आर्य कहते थे। उपनिषदों में यह कहा गया है कि सभी जड़ व चेतन वस्तुओं में र्इश का निवास है। अत: सब को अपना-सा ही समझो। फिर ब्राह्राण, क्षत्रिय और कायस्थ में भेद कैसा ?

कायस्थों की उत्पतित के बारे में स्मृतियों और पुराणों की यह बात सही है कि वे प्रथम लेखक और गणक रहे हैं उन्हें धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। इस व्याख्या के अनुसार वे ब्राह्राण थे, क्योंकि क्षत्रियों को भी लिखने और गणना करने के कार्य से कुछ लेना देना नहीं था और वैश्यों तथा शूद्रों को धर्मशास्त्रों से दूर रखा गया था। इतिहास तथा स्मृतियों और पुराणों की विषय वस्तु के अनुसार उनकी रचना र्इसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुर्इ। इससे भी कायस्थों की उत्पतित र्इसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच होना ही प्रमाणित होता है न कि ब्रह्राा से। पर यह सम्भव है कि प्रथम कायस्थ का नाम चित्रगुप्त रहा हो। सम्भवत: वे गुप्त राजाओं से सम्बनिधत और उनके विश्वस्त मंत्री या प्रधान लेखाकार या न्यायकर्ता रहे। इस बात को आज का इतिहास स्वीकार करता है। इस सम्बन्ध में दिल्ली विश्वविधालय के प्रोफेसर डी0 एन0 झा और कृष्ण मोहन श्रीमाली ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास में पृ0 369 पर यह लिखा है :-
‘एक जाति के रुप में कायस्थों का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण सामाजिक घटना है। कायस्थों का सर्वप्रथम उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति में है। इसमें कहा गया है कि राजा को चाहिए कि शोषित प्रजा की विशेषकर कायस्थों से रक्षा करें। अधिक संभावना यही है कि गणक और लेखक के रुप में कायस्थ भूमि और राजस्व सम्बन्धी अभिलेख रखते थे और पद का अनुचित लाभ ठाकुर प्रजा पर अत्याचार करते थे। कालांतर में भूमि तथा राजस्व सम्बन्धी कार्यों में वृद्वि हुर्इ। मंदिरों और ब्राह्राणों को भूमि दान में दी जाती थी। भूमि के क्रय विक्रय के भी उल्लेख मिलते हैं। भूमि सीमा निर्धारण सम्बन्धी दस्तावेज रखने पड़ते थे। कौन सी भूमि कर मुक्त है, किससे कौन से कर लिये जाने हैं, किस वर्ग से विषिट लेनी है, इन सभी कार्यों का हिसाब किताब व दस्तावेज कायस्थों को ही रखना पड़ता था। फलत: कायस्थों की संख्या में वृद्वि हुर्इ। न्यायाधिकरण में न्याय-निर्णय लिखने का कार्य ‘करणिक’ करते थे। वे लेखक, गणक या दस्तावेज रखने वाले अनेक नामों से पुकारे जाते थे। जैसे कायस्थ, कारणिक, पुस्तपाल, अलक्ष, पाटलिक, दीविर, लेखक आदि। कालांतर में वे सभी कायस्थ वर्ग मे समाविष्ट हो गये।’

आगे पृष्ठ 380 पर कहा गया है कि कायस्थों में विभिन्न वर्णों के लोग थे। वे राजा को विभिन्न कर लगाने की सलाह देते थे। धर्मशास्त्रों ने इस पर आक्षेप किया और ब्राह्राण वर्ग कायस्थों का विरोधी हो गया। कुछ ने उनको शूद्र कहा। किन्तु उनके सत्ता में रहने के कारण अनेक धर्मशास्त्रों को यह व्यवस्था देनी पड़ी कि वे क्षत्रिय हैं।

10वीं और 12वीं शताब्दी में विभिन्न स्थानों के आधार पर कायस्थों की उपजातियां बन गर्इ जैसे बंगाल से आये गौड़ कायस्थ, बल्लभी कायस्थ, सक्सेना, माथुर, श्रीवास्तव, निगम आदि।
क्षेमेन्द्र के अनुसार कायस्थों के उदय से ब्राह्राणों के अधिकारों पर आघात पहुचा। गुप्तकाल में आरम्भ में उन्होंने यह मांग की थी कि राज्य कर्मचारी के रुप में ब्राह्राण ही नियुक्त किये जायें। गुप्त राजाओं ने शत प्रतिशत ऐसी नियुकित तो नहीं की, किन्तु अधिकांश पदों पर ब्राह्राण ही नियुक्त हुए। किन्तु उनका ज्ञान धर्म ग्रन्थों तक ही सीमित था। लेखक व गणक के रुप में अन्य लोगों की नियुकित हुर्इ। वे सम्भवत: व्यापारी वर्ग से आये थे। कुछ क्षत्रियों ने भी यह कार्य सीख लिया होगा। इस वर्ग के कर्मचारी कालांतर में सभी मिल कर अलग समूह या जाति बन गये। अवश्य ही उनमें अधिकांश ब्राह्राण वर्ग के राज्य कर्मचारी थे जो अधिकारी थे। अन्य व्यापारी वर्ग से आये थे। महाजनी की ही भांति कायस्थों की अपनी विशेष लिपि ‘कैथी’ थी जिसका प्रचार बीसवीं शताब्दी के पूर्वाद्व तक बना रहा। इस प्रकार जब सब संवर्णो को मिलाकर कायस्थों की अलग जाति बन गर्इ और वे ऊंचे पदो पर आसीन होने लगे, तो ब्राह्राण उनके विरोधी हो गये।

आज का कायस्थ अपने को क्षत्रिय कहलाने के लोभ में उन्हीं ब्राह्राणों को अपने से श्रेष्ठ मानने लगा है, वर्ण व्यवस्था में अपना स्थान ढूढने लगा है और स्मृतियों तथा पुराणों को मान्यता देने लगा है। वह ब्रात्य क्षत्रिय माने जाने से भी संतुष्ट हैं जैसा पटना हार्इ कोर्ट के उपरोक्त निर्णय में कहा गया है।

कायस्थों के ब्रात्य क्षत्रिय मानने का तर्क यह है कि उन्होंने उपनयन संस्कार छोड़ दिया। पर इस कारण वे ब्रात्य ब्राह्राण भी तो हो सकते थे, क्योंकि व्यास के अनुसार लेखक को मीमांसा और वेदों का पारंगत होना चाहिए। वे सभी संस्कार स्मृतियों की देन हैं जिसमें अलग अलग वर्णों के वस्त्र, जनेऊ आदि के बारे में नियम दिये गये हैं। आज के संसार में स्मृतियों के भेदभाव पूर्ण नियम पूरी तरह नकार दिये गये हैं। स्वामी दयानन्द ने पुराणों को नकार दिया है। उन्होंने वर्णों की उत्पतित के मिथक को भी नकार दिया है। उन्होंने ब्राह्राण धर्म का यह नियम भी नकारा है कि सित्रयों और शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। आर्य समाज के पुरोहित अन्य वर्णों के भी हो सकते हैं। इस अर्थ में भी ब्राह्राण की श्रेष्ठता को नकार दिया गया है। फिर प्रखर बुद्वि के स्वामी, देश दुनिया की गतिविधियों के जानकार कायस्थ ही उन स्मृतियों और पुराणों के दास क्यों बनें ? वे वर्ण व्यवस्था स्वीकार करके अपने को ब्राह्राणों अथवा क्षत्रियों में क्यों शामिल करें ? वे अपने को आर्यों की संतान कहते हैं। फिर वे अपने को आर्य ही क्यों न मानें ? वे क्यों न यह कहें कि जब सभी जड़ व चेतन वस्तुओं में र्इश का वास है तो मनुष्य के बीच ऊच-नीच कैसा? ब्राह्राण-क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कैसा ? आर्य और अनार्य कैसा ?

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