‘हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी।
आओ, विचारें आज मिलकर ये समस्यायें सभी।।
समाज, सभ्यता और संस्कृति सतत प्रवाहित सलिला है। प्रतिपल अनवरत परिवर्तन ही सृष्टि की जीवन शकित है। व्यषिट से समषिट, बिन्दु से सिन्धु, आत्म से परमात्म की यात्रा ही लौकिक और अलौकिक के मध्य संबंध सेतु हैं। एक से अनेेक होने की इच्छा ही सृषिट के सृजन का मूल कारण है। ‘एको हम बहुस्याम’ की भावना ही परमपिता से सृषिट संरचना कराती है। इसलिए कंकर-कंकर में शंकर है। कण-कण में भगवान है। यही भाव आत्म को परमात्म बनाता है। ‘शिवो हम’ ‘अहम ब्रह्राासिम’ ‘अयमात्मा ब्रह्रा’ आदि से र्इश्वर और मनुष्य का वही अभिन्न संबंध अभिव्यक्त होता है जो ‘चित्रगुप्त’ और ‘कायस्थ’ का है।
परमपिता चित्रगुप्त
चित्रगुप्त अवतरण का आलौकिक प्रसंग सर्वविदित है। परमपिता ब्रह्राा की काया से उपजे ब्रह्राात्मज श्री चित्रगुप्त वास्तव में विचार शकित से उत्पन्न कर्म शकित हैं। परात्पर ब्रह्रा ही हैं जों अव्यक्त से व्यक्त हुए। वे ब्रह्राा की काया हैं, ब्रह्राा का काया रुप प्रगटीकरण हैं। सचराचर की समस्त कायाओं में जो सिथत है वहीं कायस्थ हैं-”काये सिथति: स: कायस्थ:। समस्त कायाओं में सिथत कौन हो सकता है? केवल परम ब्रá, तब कायस्थ वह है जो देव चित्रगुप्त का अंश है, सचराचर में व्याप्त है, दिक दिगंत तक लीन है, अविनाशी, अनश्वर, अनादि, अनंत हैं।
विष्णु धर्मोत्तर पुराण, तृतीय खण्ड, अध्याय 50 श्लोक 13 के अनुसार-
”चित्रगुप्तो विनि र्दिष्टस्तथात्मा सर्वदेहग:।
पत्रम धर्म धर्मचकायस्था तस्य लेखनी।।
अर्थात तथा (उसी प्रकार से) सब देहों में रहने वाला आत्मा (गीता में पुरुषोत्तम, परमात्मा) को विनिर्दिष्ट (चित्रित, इंगित) किया गया है। धर्माधर्म का निर्णय करने वाली लेखनी और पत्र उनके हाथ में सिथत है। ये लेखनी भाग्य लिपि लिखने में समर्थ है। कर्म लेखा रखने में समर्थपत्र देव चित्रगुप्त के कर-कमलों की शोभा है।
समस्त देहों (कायाओं) में सिथत, तन में छिपा (गुप्त) तत्व, जिससे देह का सच्चा स्वरूप (चित्र) ज्ञात हो सके वही चित्रगुप्त है। सचराचर के किसी भी देह में गुप्त चित्र (देही) ही चित्रगुप्त है। चित्रगुप्त सृष्टि कर्त्ता ब्रह्मा है जिसका अंश हर सचराचर में है।
पुराणो के पहले के सूत्र ग्रंथो में “चित्रगुप्त” का उल्लेख है। “कायस्थ” शब्द पुराणेतर काल में प्रचलित हुआ है। चित्रगुप्त से कायस्थ की यात्रा अवयक्त से व्यक्त की यात्रा है।
चित्रगुप्तम, प्रणम्यादावात्मानं सर्वदेहीनाम।
कायस्थ जन्म यथाथ्र्यान्वेष्णे नोच्यते मया।।
(सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विधमान चित्रगुप्त को प्रमाण। कायस्थ का जन्म यर्थाथ के अन्वेषण हेतु ही हुआ है।)
प्राण के साथ प्राणदाता और प्राणहर्ता का संबंध, सम्य और वैषम्य आदि काल से चिन्तन, मनन, पठन, पाठन और प्रवण-कथन का विषय रहा है। हर युग में नचिकेता के माध्यम से ब्रह्रा जिज्ञासा जैसे प्रश्न पूछे और बूझे जाते रहे हैं।
कायस्थो∙पि न कायस्थ कायस्थो∙पि न जायते।
कायस्थो∙पि न भुज्जान: कायस्थो∙पि न बध्यते।।
‘कायस्थो∙पि न लिप्त: स्यात कायस्थो∙पि न बाध्यते’ (उत्तरगीता, अध्याय 1 श्लोक 28)
काया में सिथत होते हुए भी न होना, काया उत्पन्न होते हुए भी न होना, सुख-दुख भोगते हुए भी उनमें न बंधना, पुण्य-पाप करते हुए भी उनमें लीन न होना, शरीर में रहते हुए भी बाध्य न होना ही कायस्थ का लक्षण है।
व्यासमाला के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में व्यासदास (क्षेमेन्द्र) भी कायस्थ को सर्वेश्वर, देवेश्वर, परमेश्वर ही वर्णित करता है।
यैनेदं स्वेच्छया सर्व भायया मोहितं जगत।
स जयत्जयित: श्रीमान कायस्थ: परमेश्वर:।।
जिसने अपनी इच्छा से अपनी माया के द्वारा जगत को मोहित किया है वह विजय को भी जीतने वाला, श्री (लक्ष्मी) का स्वामी कायस्थ ही परमेश्वर है।
चित्रगुप्त के विविध रुप
अव्यक्त ब्रह्रा (चित्रगुप्त) के व्यक्त रुप कायस्थ का मूल भी चित्रगुप्त नाम से ही वर्णित है। अव्यक्त के व्यक्त होने पर आध्यातिमक (सूर्यकन्या) तथा भौतिक शकित (नागकन्या) का उससे संयुक्त होना ही देव चित्रगुप्त की विवाह कथा है। व्यक्त होने के बाद वृतित और प्रवृतित, कर्म और प्रभाव के अनुसार वर्णन किया जाना स्वाभाविक है।
‘बौधायन धर्मसूत्र’ (बिबिलयोधेका संस्कृतम्हैसुर, संख्या 34) पृष्ठ 13, खण्ड 25 या ‘स्मृतीनां समुच्चय (आनंदाश्रम पूना) में बौधायन स्मृति पृ0 455, प्रश्न 2, अध्याय 5, सूत्र 140 में ‘ऊ चित्रगुप्तम तर्पमामि’ तथा ‘कातीय तर्पण सूत्र’ में –
यमांश्चैके-यमायधर्मराजाय मृतयवे चान्तकाय च।
वैवस्वताय, कालाय, सर्वभूत क्षयाय च।।
औदुम्बराय, दघ्नाय नीलाय परमेषिठने।
वृकोदराय, चित्रायत्र चित्रगुप्ताय त नम:।।
एकैकस्य-त्रीसित्रजन दधज्जला´जलीन।
यावज्जन्मकृतम पापम, तत्क्षणा देव नश्यति।।
यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतों का क्षय करने वाले, औदुम्बर, चित्र, चित्रगुप्त, एकमेव, आजन्म किये पापों को तत्क्षण नष्ट कर सकने में सक्षम, नील वर्ण आदि विशेषण चित्रगुप्त के परमप्रतापी स्वरूप का बखान करते हैं। पुणयात्मों के लिए वे कल्याणकारी और पापियों के लिए कालस्वरूप है। कल्याणमयी सौम्या दुर्गा और रौद्रा महाकाली की ही तरह चित्रगुप्त की भी मांगलिक सातिवक तथा अमांगलिक-तामसिक चित्र, विग्रह व वर्णन उपलब्ध है। रहस्यों तथा देवालियों में मांगलिक चित्र व मूर्तियों की ही स्थापना अभीष्ट है।
आश्वलायनीय गृह परिशिष्ट (बिबिलयोथेक इंडिका, कलकत्ता) में अपीच्य वेषधरं – चित्रगुप्तवाहयामि।। (24-6) द्वारा मांगलिक रुप का ही आवाहन किया गया है।
नैषधीय चरित में नल-दमयंती स्वंयर में यमराज के साथ चित्रगुप्त को उच्च गुणों वाले कायस्थ (मंत्री) के रुप में दर्शाया जाना आलौकिक स्वरुप के संसारीकरण तथा भावनानुसार वर्णन का उदाहरण है। इस रुप में उन्हें सत्यवादी (भविष्यपुराण, ब्राह्रापर्व 1923) दयालु-सौम्य, सर्वदर्शी, समदर्शी, मध्यस्थ, निष्पक्ष (पध पुराण, भूमिखंड 684), उत्तराखण्ड (2299) बताया गया है। इंडियन एंटीक्केरी 13165 में वे शाचं (विशुद्वतात्मा) जितक्रोध, उपलब्ध, सत्यवादी, सर्वशास्त्र विशारद हैं। 12 वीं सदी के सर्वोच्च दार्शनिक ग्रंथ श्रीहर्ष विरचित ‘नैषधीय चरित’ में सर्ग 14, श्लोक 66 में ‘दृग्गोचरो∙भूदथ चित्रगुप्त: कायस्थ उच्चैगुण एतदीव’ में चित्रगुप्त को श्रेष्ठ गुणयुक्त बताया गया है।
कायस्थ श्रेष्ठता के प्रतीक
चित्रगुप्त वंशज कायस्थ अपने आदिदेव परात्पर ब्रह्रा के व्यक्तरुप चित्रगुप्त के गुण-कर्मानुरुप आचरण कर समाज में पूज्य व मान्य हुए। पुराणेतर काल में चित्रगुप्त को कायस्थों के सामाजिक स्थान के अनुसार वर्णित किया गया। कायस्थों को प्रशासनिक अभिकरणों औषधीय ज्ञान, सैन्य विभाग व राजस्व प्रबंधन का पर्याय माना गया। विष्णु धर्मसूत्र अध्याय 7 गधांश 3 में ‘तनिनयुक्त कायस्थ’ अर्थात उसके (राजा) द्वारा नियुक्त कायस्थ (मंत्री, राजलेखक) वर्णित है। याज्ञवल्क्य स्मृति (1336) में
चौर-तस्कर दुवृत महासाहासिकादिभि:।
पीडयमान: प्रजा रक्षेत कायस्थैश्च विशेषत:।।
चोर-तस्कर आदि बुरी वृतितवालों का महान साहस से दमन करने वाले, प्रजा रक्षक, पीडि़तों को मान देने वाले रुप में कायस्थों का वर्णन है। एपिग्राफिका इंडिका जिल्द 15 पृष्ठ 130 काश्मीरिक क्षेमेन्द्र (11वीं सदी), राजतरंगिणी (12 वीं सदी), श्रीवट (15वीं सदी), प्राज्यभटट (16वीं सदी) में कायस्थ का पर्याय नियोगी, महत्तम, कराविक, कार्यस्थ, कार्याधिकृत, अधिकारस्थ आदि है। क्षेमेन्द्र कृत वर्णमाला में सर्वोच्च ध्येय, गृहकल्याधिपति, गृहकृत्य महत्तम (गृहमंत्री), दीवानी (ब्पअपस), फौजदारी (ब्तपउपदंस), सैन्य (डपसपजंतल), धर्म (त्मसपहपवद), न्याय (श्रनेजपबम), दंडविधान, आदि विभागों के सर्वोच्च पदाधिकारी व स्वामी रुप में परिपालक (प्रांतीय शासक), लेखकोपाध्याय (कार्यालय अधीक्षक) गणक (आय-व्यय समीक्षक), गज्जदिविर (कोषाध्यक्ष) नियोगी (तहसीलदार), आस्थान दिविर (न्यायालय लेखक मुंशी), ग्राम दिविर (पटवारी), राजस्थानाधिकारी (प्रधान न्यायाधीश), अर्थनायक (संपतित अधीक्षक) पटटोपाध्याय (अभिलेख पंजीयक) दीवान, प्रधान, रायजादा, मुख्तार, बख्शी, लाला, निगम, वैध, शिक्षक, वर्मा (रक्षा करने वाला) शब्दों का प्रयोग कायस्थों के लिए हुआ है।
कायस्थ अर्थात श्रेष्ठता अभिजात्यता व विद्वता
वैदिक काल में परात्पर ब्रह्रा चित्रगुप्त, पुराणेतर काल में कायस्थ तथा कालान्तर में विभिन्न पदों के स्वामी के रुप में अपने कार्य में श्रेष्ठता व दक्षता का पर्याय ही कायस्थ थे। ‘कार्ये सिथत: स: कार्यस्थ’ जो कार्य में सिथत हो, इतना लीन हो कि वह स्वयं ही कार्य का पर्याय बन जाए – वही कार्यस्थ (कायस्थ है)। सरस्वती व लक्ष्मी का मेल कायस्थ ही कर पाए। वास्तव में श्री उनकी चेटी होकर उन्हीं श्रीवास्तव बना गर्इ। अलौकिक ज्ञान-ध्यान को लौकिक पुरुषार्थ-पराक्रम से देश-समाज कल्याण में प्रयुक्त करने वाले कायस्थों में श्रेष्ठता, अभिजात्यता, विद्वता, वीरता, उदारता, सहिष्णुता तथा सामंजस्यता के गुण अभिन्न रुप में रहे। कायस्थों ने आयुर्विज्ञान, शिक्षा, सैन्य, धर्म आदि क्षेत्रों में निपुणता प्राप्त की।
श्रुति-स्मृति के युग में बढ़ती ज्ञान राशि के दुरुपयोग से उपजी व्यवस्था व कार्यविभाजन से अयोग्यों के पदलाभ की दशा में लेखनि, लिपि, मसि तथा पत्र का अविष्कार कर कायस्थ (चित्रगुप्त) ने ज्ञान-विज्ञान को लौकिक जनकल्याण का पथ दिखाया। आर्य-अनार्य, देव-नाग आदि संस्कृतियों के समिमलन का श्रेय भी कायस्थों को ही है। सत्ता का जनकल्याण के लिए उपयोग करने वाले कायस्थ क्रमश: सत्ता पद मे पद का गौरव व कर्तव्य भूलकर पथभ्रष्ट व बदनाम भी हुए। कायस्थों से द्वेष करने वाले जन्मना श्रेष्छता के हामी विप्र वर्ग ने रचित साहित्य में उन्हें दूषित चित्रित किया किन्तु इस सत्य को मिटाया नहीं जा सकता कि विश्व में श्रेष्ठतम मूल्यों को आत्मसात करने वाली भारतीय संस्कृति कायस्थों द्वारा सृजित और विकसित है। स्वामी विवकानंद ने कहा भी है कि भारतीय संस्कृति से कायस्थों का योगदान निकाल दिया जाये तो शेष कुछ भी नहीं बचेगा।
जातिवाद श्रेष्ठ और वरेण्य
कायस्थों ने जन्मना वंश परंपरा के स्थान पर जाति प्रथा की स्थापना की। जाति अर्थात वर्ग या श्रेणी विशेष। सृषिट पूर्व का एकत्व सृषिट आरंभ होते ही विविधत्व में बदलता है। विविधता से वर्ग सभ्यता जन्मती है। विविधता से ही जाति के जातक शकितशाली बनते हैं। विविधता का लोप ही जाति का विनाश है। जाति का मूल अर्थ था – प्रत्येक व्यकित की अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वतंत्रता। जातियों में खान-पान व विवाह संबंध भी मान्य थे। भारत के पतन का भी मूल कारण भी कायस्थों का निर्बल होना, वंशवादी विप्रवर्ग का हावी होना तथा जाति सम्बन्धी उदारता नष्ट होकर संकीर्ण साम्प्रदायिकता, कटटर धर्मान्धता तथा उपजाति आदि का प्रभाव था।
रुढ वर्ण विभाजन यथार्थ में जाति नहीं अपितु जातीय प्रगति में रुकावट है। भारतीय मनीष के श्रेष्ठतम सांस्कृतिक दूत स्वामी विवेकानंद के शब्दों में ‘जाति प्रथा उठा देने से ही भारत का पतन हुआ है। प्रत्येक विशेषाधिकार प्राप्त सम्प्रदाय (ब्राह्राण वर्ग धार्मिक संदर्भ में, आरक्षित वर्ग सामाजिक संदर्भ में) जाति का धोतक है। जाति को स्वतंत्रता दो। जाति की राह से हर रोड़ा हटा दो। बस हमारा उत्थान हो जाएगा। — प्रत्येक हिन्दु जानता है कि किसी बच्चे (जातक) के जन्म लेते ही ज्योतिषी उसके जाति निर्वाचन की चेष्ठा (कुंडली नक्षत्र आदि द्वारा) करते हैं। वही असली जाति है – व्यकित का व्यकितत्व ज्योतिष इसे स्वीकार करता है। हम तभी उठ सकते हैं जब जाति को पूरी स्वतंत्रता दें। याद रखें इसका अर्थ न वैषम्य है, न विशेषाधिकार।
कायस्थ अर्थात जाति
कायस्थ अर्थात अपनी काया से इसी तरह सिथत होना कि हर काया में सिथत (व्याप्त) हो सकें। तभी आप समस्त मानव जाति में व्याप्त होकर ‘वसुदैव कुटुम्बकम’ या ‘विश्वैक नीडम’ के आदर्श को जीवन्त कर विश्वमानव ‘कार्यस्थ’ बन सकेंगे। इस अर्थ में कायस्थ जाति ही सच्ची जीवन पद्वति है वह धर्मान्धता, कटटरता या संप्रदायिकता नहीं है। आइये उपवर्ग, उपजाति, भाषा, प्रदेश या उपासना पद्वति की दीवारें तोड़कर जातिवादी बनें। भगवान चित्रगुप्त केवल वंशजों के नहीं सचराचर के भाग्य देवता और कर्म देवता हैं। उनका पूजन सब करें – तभी वंशजों का गौरव गान, योग्यता का सम्मान और जाति का उत्थान होगा।
— संचालक चित्रांशीय विवाह संसथान
प्रम मनिदर, राइट टाउन, जबलपुर