सम्पूर्णानंद
सम्पूर्णानंद (अंग्रेज़ी: Sampurnanand, जन्म:1 जनवरी, 1889, वाराणसी; मृत्यु: 10 जनवरी, 1969) प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और राजस्थान के राज्यपाल भी रहे थे। डॉ. सम्पूर्णानंद कुशल तथा निर्भीक राजनेता एवं सर्वतोमुखी प्रतिभा वाले साहित्यकार एवं अध्यापक थे। उनकी इतिहास, पुराण, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि में गहरी पैठ थी। आध्यात्मिक विषयों में भी उनकी बड़ी रुचि थी। वे समाजवादी विचारों के व्यक्ति थे और 1934 में कांग्रेस के अंदर ‘समाजवादी पार्टी’ के गठन में आचार्य नरेंद्र देव के साथ उनका भी प्रमुख हाथ था।
प्रसिद्ध राजनेता और विद्वान डॉ. संपूर्णानंद का जन्म 1 जनवरी, 1889 ई. को वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम मुंशी विजयानंद और माता का नाम आनंदी देवी था। पितामह बख्शी सदानंद काशी नरेश के दीवान थे। किनाराम बाबा के आशीर्वाद से सब पुरुषों के नाम के साथ ‘आनंद’ शब्द लगने लगा। पिता मुंशी विजयानंद सरकारी कर्मचारी थे। संपूर्णानंद जी ने 18 वर्ष की उम्र में बी.एससी. की परीक्षा पास की। अपने अध्यवसाय से इन्होंने फ़ारसी और संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
सम्पूर्णानंद के सम्मान में जारी डाक टिकट
एल.टी. करने के बाद वे अध्यापन की ओर प्रवृत्त हुए। कुछ दिन तक हरिश्चंद्र हाई स्कूल और मिशन स्कूल में पढ़ाया। फिर राजा महेंद्र प्रताप द्वारा स्थापित प्रेम महाविद्यालय वृन्दावन में विज्ञान के अध्यापक रहे। कुछ समय बाद राजकुमारों के डेली कॉलेज, इंदौर में गणित के अध्यापक बने। 1918 में महाराजा बीकानेर ने डूगर कॉलेज का प्रधानाचार्य बनाकर उन्हें बीकानेर बुला लिया। 1921 तक वे बीकानेर रहे और फिर असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए पद त्याग दिया। वाराणसी आने पर आप राष्ट्रीय आंदोलन के साथ साहित्य सेवा की ओर भी अभिमुख हुए। उन्होंने ‘मर्यादा’ नाम की हिंदी पत्रिका और ‘टुडे’ नामक अंग्रेज़ी दैनिक का संपादन किया। 1923 में वे काशी विद्यापीठ में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर नियुक्त हुए और स्वतंत्रता प्राप्ति तक इस पद पर बने रहे।
डॉ. संपूर्णानंद ने प्रत्येक स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और हर बार जेल गये। 1927 में वे स्वराज्य पार्टी के टिकट पर प्रांतीय विधान परिषद के सदस्य चुने गये। 1937 में प्रदेश की विधान सभा के लिए उनका निर्वाचन हुआ। गोविंद बल्लभ पंतजी के प्रथम मंत्रिमण्डल के सदस्य प्यारे लाल शर्मा के त्यागपत्र देने पर संपूर्णानंद जी को शिक्षा मंत्री के रूप में मंत्रि परिषद में लिया गया। उन्होंने गृह, अर्थ तथा सूचना मंत्री के रूप में भी काम किया। गोविंद बल्लभ पंत के केंद्र सरकार में चले जाने पर 1955 में डॉ. संपूर्णानंद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और 1961 में उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया। 1962 में उन्हें राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया। और 1967 में इस पद से अवकाश ग्रहण किया।
डॉ. संपूर्णानंद की इतिहास, पुराण, दर्शन, राजनीति, समाजशास्त्र आदि में गहरी पैठ थी। आध्यात्मिक विषयों में भी उनकी बड़ी रुचि थी। वे समाजवादी विचारों के व्यक्ति थे और 1934 में कांग्रेस के अंदर ‘समाजवादी पार्टी’ के गठन में आचार्य नरेंद्र देव के साथ उनका भी प्रमुख हाथ था। वे तीन बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस के सचिव रहे। 1940 के पुणे हिंदी साहित्य सम्मेलन की उन्होंने अध्यक्षता की। अपने मंत्रित्व काल में उन्होंने हिंदी के उन्नयन के लिए अनेक योजनाएँ आरंभ कीं। ‘हिंदी समिति’ (जो अब हिंदी संस्थान कहलाती है) उन्हीं की आरम्भ की हुई है। वाराणसी का संस्कृत विश्वविद्यालय भी उन्हीं के शासन काल में बना। वे बड़े स्वतंत्र और निर्भीक विचारों के व्यक्ति थे। भाषा और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के मामलों में उन्होंने अनेक बार नेहरू जी की नीति का सार्वजनिक रूप से प्रतिकार किया था।
लेखक के रूप में डॉ. संपूर्णानंद ने अपनी गहरी छाप छोड़ी है। उन्होंने लगभग 45 पुस्तकों की रचना की है, जिनमें से प्राय: हिंदी भाषा में हैं। गांधी जी की पहली जीवनी ‘कर्मवीर गांधी’ नाम से उन्होंने ही लिखी थी। उनके अन्य प्रमुख ग्रंथ हैं-
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उनकी कविताओं का एक संग्रह भी काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने प्रकाशित किया।