-संजीव वर्मा ‘सलिल’
भारत वर्ष की सभ्यता और संस्कृति अनेकता में एकता का अनूठा उदाहरण है। नियति, पर्यावरण और प्रकृति के सानिध्य में मानव ने प्राकृतिक ऋतुचक्र, मौसम एवं वातावरण को नियंत्रित करने वाले प्रभावी तत्वों को अपने इष्ट, सहायक या मार्गदर्शक के रुप में स्वीकार व अंगीकार किया। मानवीय नियंत्रण से परे महाशक्तियों को अपरिमित, असीम तथा परलौकिक, अनादि एवं अनन्त मानकर, भय से, रक्षा की प्रार्थना करते हुए भगवान या र्इश्वर स्वीकारा गया। श्रलोक, मंत्र, प्रार्थना, वंदना, चालीसा, स्त्रोत, स्तुति, जप-तप, पूजन, उपासना, आरती, व्रत आदि इस मूल भावना के कर्मकाण्डीयकरण के प्रतिफल माने जा सकते हैं। ऐसी आदि दैविक, आदि भौतिक शक्तियों को पंचदेव, पंचतत्वों, पंच शक्तियों के रुप में साधना का साध्य मानकर स्वयं की सुरक्षा के प्रति आश्वसित का भाव उत्पन्न किया गया। सागर, पवन, धरा, पर्वत, वन, जल, अग्नि, वृक्ष, राष्ट्र, ग्राम, गगन, स्थानादि को देव रुप में मान्यता दी गर्इ है। शक्तिशाली पशुओं सिंह, वृषभ, पक्षियों, गरुड़, उलूक, विशाल पेड़ों बरगद, पीपल, नीम, आम, बड़े संबंधियों पिता-माता भार्इ-बहिन आदि को मात्र आदर नहीं अपितु पूजा का पात्र स्वीकार किया गया। इनके पूजास्थल, तिथियाँ तथा विधियाँ क्रमश: बारम्बारता के आधार पर मान्य होती गर्इं। पर्वो उत्सवों शुभ कार्यों मे इस शक्तियों की प्रसन्नता हेतु आहुतियाँ व बलि तक दी जाने लगीं।
प्रभु चित्रगुप्त का अवतरण
अक्षय सत्यों के स्वानुभूत संचयन से निरन्तर विस्तारित होती ज्ञानराशि को सुरक्षित व्यवस्थित रखने तथा सही संदर्भ एवम अर्थ ग्रहण के लिए स्रवण, स्मरण, कथन की परम्परा कठिन तथा अपर्याप्त होती गर्इ। मंत्रों के गलत स्मरण, विस्मरण, त्रुटिपूर्ण व्याख्या तथा गलत संदर्भों के कारण अर्थ का अनर्थ होने लगा। सृष्टि नियन्ता बृह्रा के समक्ष व्यवस्थाओं को अव्यवस्थित होने से बचाने की विषम समस्या उत्पन्न हो गयी। समस्या के समाधानार्थ आत्म शक्ति से साक्षात हेतु ब्रह्रा आत्म-चिन्तन में लीन हो गये। यह आत्मलीनता की तपश्चर्या अनवरत प्रगाढ़ होती गर्इ। मानस जगत में अलौकिक प्रकाशपुंज कौंधने के सुद्रश्य ब्रह्रा ने ज्ञान रश्मियों का अनुभव किया। समाधान काया में काया के द्वारा, काया के लिए होने की अनुभूति हुर्इ। काया में स्थित लौकिक मानसिक-वैचारिक समाधान को लौकिक रुप में जिस स्वरुप के माध्यम से ब्रह्रा ने क्रियान्वित कराया वह ‘कायस्थ’ कहलाया। लौकिक मानस शक्तियों के साथ सदा लौकिक काया में ‘स्थित रहकर, माया के मोह से मुक्त रहकर भी ‘माया के माध्यम से जगकल्याण हेतु सक्रिय, सतत जनकल्याण के पुनीत कार्य में स्थित रहने वाला आदि (प्रथम) पुरुष ही कायस्थ या कार्यस्थ कहा गया। सर्वकल्याण में दत्त चित्त होकर अपने चित्त (मन) को विस्मृति कर देने वाला, सबके चित्र (अस्तित्व) में अपने चित्र को अनुभव करने वाला, अपने निजी ‘स्व’ को ‘सर्व’ में विलीन कर ‘चित्र’ को ‘गुप्त’ रहने वाला ही चित्रगुप्त कहा गया। ब्रह्रा की काया से कायातीत के उदभव की अलौकिक पौराणिक कथा नियति, भाव्य तथा पौरुष व प्रयास के तालमेल का सुन्दर द्रष्टान्त उपस्थित करता है। आत्म से परमात्म का साक्षात या परमात्म से आत्म का सामीप्य ही चित्र में गुप्त चित्रगुप्त या अपने अलौकिक ‘चित्र’ (तन) में स्थित गुप्त चित्र (मन का उदभव) है।
देव चित्रगुप्त का योगदान व स्वरुप
ज्ञान राशि के विस्तार को लिपि, लेखनि, मसि और पत्र के माध्यम से व्यवस्थित तथा स्थायी करने का श्रेय प्रभु चित्रगुप्त को है। इसी हेतु वे भाग्य नियंता हैं। ब्रह्रा के उत्तराधिकारी या आत्मज ही नहीं स्वयं परात्पर परम ब्रह्रा हैं। वैदिक संस्कृति में जन्म तथा भाग्य के आधार पर स्थान निर्धारण की प्रथा समाप्त कर योग्यता तथा कर्म के आधार पर स्थान निर्धारण की प्रक्रिया के वे जनक हैं। कर्म के आधार पर फल देने का विधान करने वाले चित्रगुप्त प्रभु कर्मेश्वर हैं। मा सरस्वती की शब्द शक्ति को ग्रहण करने के कारण से सरस्वती नंदन हैं। क्षर (नाशवान) ज्ञान को अक्षर (नष्ट न होने वाला) द्वारा अजर-अमर कर देने वाले चित्रगुप्त जी यम-नियम के स्वामी हैं। वे यम के मुनीम या दरबान कैसे हो सकते हैं ? धर्म का निर्धारण तथा पालन कराने वाले धर्मराज या धर्मेश्वर भी चित्रगुप्त प्रभु हैं। ‘क्षर’ को ‘अक्षर-अक्षर’ जोड़कर अंकन, पठन, पाठन ही अज्ञान के अंधेरे को मिटाकर ज्ञान रश्मियों का आलोक बिखरा सका। योग्यतानुसार कर्म विभाजन, कर्मानुसार वर्णानुसार फल प्रापित, पाप-पुण्य लेखन तदानुसार पुरुस्कार-दण्ड निर्धारण के सर्जक देव चित्रगुप्त संहिता करण (Codification), विधि शास्त्र (Jurisprudence), न्याय शास्त्र (Judiciary), दण्ड विधान (Penal Code), अपराध शास्त्र (Criminology), समाज शास्त्र (Sociology) सैन्य विज्ञान, शस्त्र विज्ञान, आयुर्विज्ञान, प्रशासन विधि, शासन तंत्र तथा विधायन आदि बारह विधाओं के जनक व अधिष्ठाता हैं।
ज्ञान ब्रह्रा की काया का अद्धभुत चित्रगुप्त के बारह पुत्र, ज्ञान की बारह विधाओं में पारंगत ऋषियों के आश्रमों में शिक्षा अर्जित कर लोक कल्याण में प्रवृत्त होते हैं। क्या यह अक्षर-ब्रह्रा की बारह विधाओं (शाखाओं) के वर्गीकरण का संकेत नहीं हैं ? ज्ञान की रक्षा के लिए शक्ति आवश्यक है इसीलिए प्रभु चित्रगुप्त आदि शक्ति के उपासक हैं। बारहों पुत्रों की इष्ट देवियां आदि शक्ति के ही बारह स्वरुप हैं। बारह माह, दिन-रात के बारह घण्टे, बारह वर्ष का युग (समय मापन की इकार्इ), बारह गोत्र बारह रुद्र, आदि क्या संयोग मात्र है? देव चित्रगुप्त ने शब्द ब्रह्रा के साथ अक्षर ब्रह्रा को संयुक्त किया। दोनों माताओं के रुप में देव कुल की आध्यात्मिक, पारलौकिक शक्ति सम्पन्न सूर्यकुल कन्या तथा नाग कुल की व्यावहारिक, लौकिक शक्ति सम्पन्न नाग कन्या प्रभु की अर्धागंनियां बनीं। शुभाशुभ, श्वेत-श्याम, विराग-अनुराग, योग-भोग, ज्ञानाज्ञान, कर्माकर्म आदि विपरीत प्रवृतितयों में समन्वय, संतुलन, समायोजन व सामजस्य करना ही कायस्थ होना है। मसि (स्याही) के साथ असि (तलवार) धारण करना ज्ञान तथा प्रशासन का तालमेल ही है। कायस्थ कुल में जन्मा जातक अकायस्थ तथा अकायस्थ कुलीन जातक कायस्थ हो सकता है। कायस्थ जन्म पर आधारित जाति या वंश परम्परा मात्र नहीं तहजीब है, सभ्यता है, जीवन पद्धती है।
सभ्यता व संस्कृति को जन्म देता कायस्थ ”ब्रह्रा” व्यवस्था व पोषण करता कायस्थ ”विष्णु” तथा निरुपयोगी अनुप्रयुक्त को नष्ट करता कायस्थ ‘महेश’ होता है। जो कायस्थ अर्थात काया में स्थित न हो, जो कायस्थ अर्थात सदा अपने लिये नियत कार्य में स्थित न हो व सृजन, पालन या विनाश कर भी कैसे सकता है? परितोषण व रक्षक कर्म के कारण ही कायस्थ ”वर्मा” विशेषण से अभिषिक्त हैं।
ज्ञान ब्रह्रा की अखण्ड साधना करने, पूजा-हवनादि का रहस्य जानने, समाज की रक्षा, विविध जीवन मूल्यों व पद्दतियों में तालमेल, रक्षण, न्याय, प्रशासन, आय-व्यय का लेखा-जोखा संधारण करने तथा सामाजिक मूल्यों को क्षति पहुचाने वाले तत्वों की सफार्इ व उन्मूलन करने वाले कायस्थों ने ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र चारों वर्गों के कार्यों का सम्पादन प्रबंधन नियंत्रण किया। इसी कारण वे चारों वर्णों से परे माने गये, उन्हें किसी वर्ण में शामिल नहीं किया जा सका। वस्तुत: वर्ण तो कायस्थ प्रगति व्यवस्था से उत्पन्न हुए। प्रभु चित्रगुप्त ने ही श्रुति-स्मृति व्यवस्था से उपजी अव्यवस्था को समाप्त करने के लिए मसि-अति का प्रयोग कर लिपि-लेखनि कागज के माध्यम से योग्यतानुसार कर्म-व्यवसाय की व्यवस्था की। ”चातुर्वण्य मया सृष्टम, गुण कर्म विभागश: का श्री कृष्णीय उदघोष वस्तुत: चित्रगुप्त का ही उदघोषण था। कौन कह सकता है कि उक्तानुसार श्री कृष्ण कायस्थ एवं कार्यस्थ नहीं थे।
देव संस्कृति का प्रतीक सूर्य, अंधेरे का अंत, प्रकाश का उदभव हैं। वह दिनकर है, निशांतक है, जीवनधर है। दशों दिशाओं को आलोकित करने वाला है। नाग को सूर्य का उजाला रुचिकर नहीं। सूर्य के ताप में त्वचा की जलन से नाग बांबी की शीतलता में आश्रय पाता है। प्रभु चित्रगुप्त ने सचराचर के कल्याणार्थ उध्र्वगामी देव संस्कृति व अधोगामी नाग संस्कृति से समन्वय किया। समन्वय स्वरुप प्राप्त ज्ञान-विज्ञान को बारह विधाओं में वर्गीकृत कर, बारह गुरुकलों के माध्यम से मात्र अपने बारह पुत्रों को नहीं अपितु सचराचर को उपलब्ध कराया। तभी वे सचराचर के कर्म देवता हैं। उनका पूजन केवल कायस्थ कुल में जन्में जातक करें यही बड़ी बिडम्बना है। वे महाराज अग्रसेन की तरह नश्वर नर या वंश प्रमुख नहीं अनादि, अनन्त, अनश्वर परात्पर ब्रह्रा है। वे मैथुन सृष्टि से उत्पन्न नहीं हैं। माता-पिता का नाम जन्म न स्थान होना यही सिद्ध करता है कि वे अनादि हैं। उनकी निधन तिथि व स्थान न होना उन्हें अनन्त बताता है। वे तो हर प्राणी के ‘चित्त’ में गुप्त हैं। फिर हर प्राणी उसका पूजन क्यों न करे ? कायस्थ सभाऐं केवल कायस्थ कुल जन्मों का संगठन क्यों बने ? क्या यह असत्य व मिथ्या आचरण ही संगठनों की निष्प्रभता, असफलता व विनाश का कारण नहीं। सर्व धर्म समन्वय, सर्व संस्कृति समन्वय का उदघोष करने वाले प्रभु चित्रगुप्त के वंशज होने का दावा करने वाले इतने संकुचित कि वंश परम्परा, उनमें उपवंश, उपजाति अंतत: स्वयं को सर्वोपरि मानें। एक बार पदासीन हो जाये तो धकियाये, लतियाए जाने तक न हटें – विचारणीय है।
सांस्कृति समन्वयक प्रभु चित्रगुप्त
खण्ड-खण्ड से अखण्ड संरचना के पथ पर प्रभु चित्रगुप्त ने जड़ चेतन, सराचर के भाग्य व कर्म को पढ़ने ही नहीं गढ़ने का भी कार्य किया, तभी वे ब्रह्रात्मज, ब्रह्रा कार्यादभूत परात्पर ब्रह्रा हैं। विविध आस्थाओं, मूल्यों, जीवन पद्दतियों में सामजस्य, समन्वय, संतुलन, सदभाव, साहचर्य, सहयोग, सहकार से नव सभ्यता, संस्कृति संस्थापन की राह में सुस्पष्ट मर्यादाओं, निष्पक्ष विधानों, सख्त दण्ड व्यवस्था, निर्वैर न्याय व्यवस्था, समर्थ प्रशासन, कुशल शासन, जीवन दायी ज्ञान-विज्ञान का सृजन सहज नहीं था। पारम्परिक स्वरुप में ब्रह्रा संस्कृति के माध्यम से नहीं कर सके तभी परिवर्तित स्वरुप प्रभु चित्र गुप्त बनकर ब्रह्रा ने यह सब सृष्टि व्यवस्था सम्पन्न की।
सांस्कृतिक समन्वय के लिए सूर्य पौत्री, धर्मशर्मा पुत्री इरावती (शोभावती) तथा श्राद्वदेव सुता दक्षिणा (नन्दनी) के साथ प्रभु चित्र गुप्त का परिचय सांस्कृतिक समन्वय की महागाथा है। भूत भावन महाकाल की नगरी अवंतिकापुरी में आदि शक्ति की उपासना शैव तथा शाक्त मत का एकीकरण ही तो है। प्रभु चित्रगुप्त ने नाग संस्कृति के अन्वेषणों तथा आर्य शक्ति के नवानुसंधानों को आत्मसात किया। भोग प्रधान देव संस्कृति की कमियों को पहचान कर कर्म नैपुण्य पर आधारित करना ही कायस्थ वाद है। किसी भी वर्ण के किसी भी कर्म को कुशलता पूर्वक करने वाला कायस्थ हो सकता है। रुढि़वादियों को यह प्रणाली रुचिकर नहीं होनी थी। फलत: ‘कायथ घर भोजन करै बचे न एकउ जात’ जैसी उक्तिया जन्मीं। ‘योग: कर्मसु कौशलम’ वस्तुत: चित्रगुप्त प्रणीत प्रणाली पर ही आधारित है। नाग संस्कृति वस्तुत: मातृ शक्ति प्रधान थी। वैदिक संस्कृति में नर-नारी साम्य मान्य था किन्तु देवों ने नारी को ‘कामिनी’ रुप देकर अप्सरा पंरंपरा बनार्इ जबकि रक्ष संस्कृति में नारी केवल भोग्य मात्र हो गर्इ। प्रभु चित्रगुप्त ने नारी के मातृ स्वरुप को प्राथमिकता दी। आज भी कायस्थ परिवारों की नारियां सर्वाधिक शिक्षित तथा योग्य है।
समष्टि हेतु व्यष्टि के बलिदान की परंपरा प्रभु चित्रगुप्त प्रणीत है। संस्कृति उन्नयन हेतु प्राणप्रिय बारह पुत्रों को विभिन्न बारह ऋषियों के पास भेजना तथा विभिन्न बारह स्थानों की शासन व्यवस्था सौंपना व्यकितगत माया-मोह के स्थान पर देश-काल की आवश्यकता को प्रधानता देनी ही है। आत्म को उध्र्वमुखी कर ‘परमात्म’ बनाने का विचार ही अ्रहमृ ब्रहास्मि, ‘शिवोअहम!’ ‘आत्म को उध्र्वमुखी कर ‘परमात्म’ बनाने का विचार ही ‘अहम ब्रहास्मि’, ‘शिवोअहम’ ‘अमात्मा ब्रह्रा’ आदि में व्यक्त हुआ है।
सर्व कल्याण की भावना से ही कायस्थ कुल गौरव माता कैकर्इ ने सौभाग्य सूर्य का बलिदान देकर भी प्राणप्रिय सुत राम भेजे। रक्ष संस्कृति प्रणीत अत्याचारों का अंत कराया। नवविवाहित पुत्रों राम लक्ष्मण को वनवास तथा भरत-शत्रुघ्न को राज्य के विलास से दूर रखकर मां कैकेर्इ ने असाधारण त्याग किया तिस पर भी उन्हें कलंकिनी कहा गया। आज भी कोर्इ किसी लड़की का नाम कैकेर्इ नहीं रखता। लोक कुछ भी कहे पर प्रभु राम ने उन्हें सगी मां कौसल्या के पहले प्रणम्य माना। लक्ष्मण ने भी उन्हे सम्मान दिया। प्रारम्भ में उनका अनादर करने वाले भरत भी वास्तविकता ज्ञात होने पर उनके चरण-कमलों में प्रणत हुए। लंकावासी सुषेण वैध द्वारा शक्ति से लक्ष्मण की प्राण रक्षा रावण सत्ता से सर्वनाश का भय रहते हुए त्याग किया गया किन्तु आत्म गोपन, निर्लोभ तथा आत्मलीनता के भाव से कायस्थों ने अपने योगदान का प्रचार नहीं किया न किसी लाभ की दावेदारी की। यह वीतरागता तो डा0 राजेन्द्र प्रसाद, जय प्रकाश नारायण, लाल बहादुर शास्त्री, सुभाष चन्द्र बोस, महादेवी वर्मा, अंबिका प्रसाद ‘दिव्य’ आदि में भी देखी जा सकती है।
प्रभु चित्रगुप्त प्रणीत कर्माधारित फल व्यवस्था से श्रेष्ठता की अहम्मन्यता वाले देवों भूदेवों (ब्राह्राणों) को जन्माधारित श्रेष्ठता के लाभ से वंचित होना पड़़ा। ऐसे प्रसंगों से उपजी असहमति ही उपनिषद जातक व ब्राण्ह्राण ग्रंथों में चित्रगुप्त निन्दा के रुप में उपलब्ध है। द्वारपाल, मुंशी, दरबान, दरबारी, वर्ण शंकर, शूद्र, राक्षस, वर्णहीन, ब्रम्हा-सरस्वती का अवैधपुत्र, मधप, क्रूर, विलासी, भयंकर, अशुभ, तामसी, आदि लिखा जाना अविवेकी वृति की पराकाष्ठा है। प्रभु चित्रगुप्त संबंधी पुराण, कथा वार्ता, आरती, श्लोक, मंत्र चालीसा, व्रत, उपवास आदि की न्यूवता भी इसी वृति का दुष्परिणाम है। सभ्यता के किसी भी क्षेत्र में, सृष्टि के किसी भी अंग में कायस्थों का उपसीम, अतुल योगदान प्रभु चित्रगुप्त की वास्तविकता को उजागर करता है। स्वामी विवेकानंद ने ठीक ही कहा कि सभ्यता में कायस्थों का योगदान निकाल देने पर शुन्य ही शेष बचेगा।
असुंतलित यांत्रिकता तथा अमर्यादित भौतिक वादी वर्तमान जीवन पद्धति में प्रकृति व पर्यावरण के अनुकूल, सनातन शाश्वत जीवन पद्धति तथा प्रभु चित्रगुप्त प्रणीत जीवन-मूल्यों को अपनाए बिना कल्याण नहीं है। क्या कायस्थ जन संकीर्ण कठमुल्लेपन से मुक्त होंगे ? क्या हम प्रभु चित्रगुप्त की यथार्थता व महानता को जान व मान कर अपना सकेंगे? क्या हम वैदिक पौराणिक साहित्य के प्रक्षिप्त अंशों का पहचान सकेंगे ? क्या कायस्थ वास्तव में हर काया में स्थित हो उसके दुख-दर्द को अनुभव कर दूर करने योग्य बनेंगे ? क्या कायस्थ अपने कार्य में श्रेष्ठता पाकर कार्यस्थ होंगे ? क्या ब्रम्ह्रात्मज के वंशंज ‘ब्रह्रासिम’ कहने योग्य होंगे ? क्या चित्रांश में चित्त में गुप्त, चित्र का साक्षात कर पायेंगे ? समय के सवाल मुह बाए खड़े हैं। आइए, इनसे जूझें, कुछ बताऐं कुछ पूछे पर स्वंय को दीन, हीन अस्पृश्य निर्बल, अल्पसंख्यक, आराखित जैसी बैसाखियों पर आश्रित करने के कलंक से बचें। आश्रय की याचना न करें आश्रयदाता बनें। तभी हम ‘कायस्थ’ कहलाने के अधिकारी हो सकेंगे। प्रभु चित्रगुप्त की नित्य प्रात: संध्या पूजा, आरती, भजन गायन, घर-घर तथा मंदिरों में हो। हर सम्प्रदाय, पंथ, विचार के श्रद्धालु सम्मिलित हों। उदार सदाशयता ही प्रभु चित्रगुप्त की विरासत है। इसे ग्रहण करें और प्रभु चित्रगुप्त, माता नंदिनी व इरावती के सच्चे पुत्र कहने के उपधिकारी बनें।
सम्पादक चित्राशीष
204 विजय अपार्टमेन्ट, नेपियर टाउन, जबलपुर