कायस्थ – कौन ? |
‘अब आवश्यकता इस बात की है कि कायस्थ बारह नहीं, बलिक कायस्थ केवल कायस्थ है, उसे इस मत का होना पड़ेगा। सभी कायस्थों में समान रुप से विवाह आदि सम्बन्ध स्थापित किये जाने चाहिए, न कोर्इ ऊचा है न कोर्इ नीचा है।’ कायस्थ शब्द का परिचय कायस्थ शब्द सर्व प्रथम पुराणों में धर्मराज अथवा यमराज के मंत्री के रुप में चित्रगुप्त-देव के विशेषण अथवा उपाधि के रुप में प्रयुक्त हुआ है। पुराणों से पूर्वकाल में रचित सूत्र ग्रन्थों में चित्रगुप्त का नाम तो मिलता है किन्तु उनके विशेषण के रुप में कायस्थ शब्द नहीं मिलता। इस सम्बन्ध में ‘बौधायन स्मृति’ के पृष्ठ 455 अध्याय 5 के सूत्र 140 में ‘ऊं चित्रगुप्तम तर्पयामि’ तथा कातीय तपर्ण सूत्र में ‘यमांश्चैके’। यमाध्र्माराजाय मृत्यवेचान्तकाय च। औदुम्बराय दध्नाय नीलाय परमेषिठने। एकैकस्य त्रीस्त्रीन दधाज्जलान्जुलीन। किन्तु पुराण काल के पश्चात बारहवीं शताब्दी में कायस्थ शब्द, श्री हर्ष विरतिचत ‘नैषधीय चरित’ में ‘दृग्गोचरोअभूदथ चित्रगुप्त: कायस्थ: उधैगर्ुणतदीय:।’ तथा इंडियन ऐणिडक्वेटी जिल्द-19 पृष्ठ 59 पंकित् 15 में ‘दक्ष: प्राज्ञो विनीतात्मा गुरुभक्त: प्रियंवद:। तृप्तो∙र्थेरौपकश्र्चासिमन कायस्थो गोमिकांगंूज:।’ प्रयुक्त हुआ। विष्णु धर्म सूत्र (विष्णु स्मृति के अध्याय 7 गधांश 3 में ‘राज्याधिकरणे तनिनयुक्त कायस्थ कृत तदध्यक्ष करं चिनिहतम राजा साक्षिकम’ के अनुसार ‘कायस्थ को राजलेखक माना गया है। क्षेमेन्द्रकृत ‘नर्ममाला’ में कायस्थ को गृह कृत्याधिपति’ अथवा ‘गृह-महत्तम’ (होम मिनिस्टर) कहा गया। इसी ग्रंथ के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में तो कायस्थ को परमेश्वर का रुप कहा गया है। येनेदम स्वैच्छया, सर्वम, माययाम्मोहितम जगत। ‘उत्तर गीता’ के प्रथम अध्याय के श्लोक 27 से 31 ‘काय-स्थो पि न जायते काय-स्थोपिन भुंजान: काय-स्थो पि न बाध्यते।’ के अनुसार कायस्थ को परमात्मा कहा गया है। विष्णु धर्मोत्तर पुराण के तृतीय खण्ड 51 श्लोक 13 में ‘कायस्थ चित्रगुप्त को अन्तर्यामी कहा गया है। यथा – ‘चित्रगुप्तो विनिर्दिष्टतयात्मा सर्व-देह-ग:। इतियादि के अनुसार कायस्थ शब्द कपोल कलिपत अथवा अर्वाचीन न होकर सनातन अथवा अत्यन्त प्राचीन है। कायस्थ की व्युत्पति पुराणों के अनुसार नवग्रहों में अनितम (नवम) केतु ग्रह की अधि देवता तथा प्रत्यधिदेवता क्रमश: ब्रह्राा जी व चित्रगुप्त जी हैं। चित्रगुप्त जी ब्रह्राा जी के ध्यान-ज-पुत्र हैं। उत्पतित से पूर्व चित्रगुप्त ब्रह्रााजी के काय (शरीर) में सिथत (‘स्थ’) थे जो ब्रह्राा के ध्यान करने से प्रकट हो गये। अत: वे ब्रह्रा-कायस्थ हुए। जो समयोपरान्त कायस्थ कहलाये। इस महाजाति के अन्तर्गत चित्रगुप्त वंशय, बंगीय, महाराष्ट्रीय, इत्यादि अवान्तर भेद तथा उनके भी उपभेद रुप सूर्यद्विज, श्रीवास्तव, निगम, गौड़, माथुर, भटटनागरादि, उत्तरराढ़ीय वारेन्द्र, वंगज, आदि कायस्थों की विविध जातियां बनी। कायस्थ वंश डा0 अंगन लाल (फिरोजपुर-पंजाब) के कायस्थ वर्ण-निर्णय (उदर्ू) तथा ‘कायस्थ सर्वस्व ग्रन्थ’ के संकलनकर्ता पं0 रवीचन्द्र शास्त्री (जोधपुर-राजस्थान) के अनुसार कायस्थ नाम की एक पृथक जाति सदैव से चली आ रही थी और उन्होंने ‘क्षत्रिय’ वर्ग की जाति कह डाला किन्तु प्राचीनतम पुराणों के तथ्यों का निरुपण करने पर, वास्तविक इतिहास से परे यह कल्पना सिद्व नहीं हो पाती। ग्यारहवीं शताब्दी के एक शिलालेश में कायस्थों की यह द्विजाति उत्साह इन दोनों शकितयों से सम्पन्न राजाओं की तीसरी अखिल मंत्र शकित बढ़ाने के लिए ‘अमात्य धर्म’ का कारण बनी, मंत्री ने अपने कायस्थ-वंश-वर्णन की भूमिका का रुप इस श्लोक में स्पष्ट किया है – ‘उत्साह शकित-प्रभुशकित-भाजां प्रवर्धनायाखिल मंत्र शक्ते:। ब्रार्हस्पत्य अर्थशास्त्र अध्याय 6 सूकित में प्रपंचित अमात्य सम्पत के अन्तर्गत अप्रातिग्राहक तथा मंत्री आदि राजकीय पद-धारी बुद्विजीवियों का एक वर्ग था जो चित्रगुप्त के विधा-वंशज हुए और कायस्थ कहलाये। मेदनी-शेष में ब्राह्राणों की इसी शखा ‘नर-जाति-विशेष से सम्बोधित की गयी और जो लिपि इन्होंने प्रतिपादित किया वह ‘ब्राह्राी’ लिपि कहलायी। महाराज चित्रगुप्त देव के बारह पुत्रों – भानु, विभानु, विश्वभानुख् वीर्यवान, चारु, चित्रचारु, मतिमान, सुचारु, चारुरत, हिमवान, चित्र और अतीनिद्रय हुए जिनके वंशज क्रमश: श्रीवास्तव, सक्सेना, सूरजध्वज, निगम, कुलश्रेष्ठ, माथुर, कर्ण, भटनागर, वाल्मीक आदि कहलाये। पुराणों में कहीं-कहीं वारेन्द्र, वालभ, सेनक, अहिगण, उत्तर-राढ़ीय, दक्षिण राढ़ीय कायस्थों का भी उल्लेख मिलता है। सम्भवतय: ये इन्हीं वंशों में से किन्हीं वंशों के उपनाम अथवा उपवंश रहे होंगे। |
कायस्थों की उत्पति |
कायस्थों की उत्पतित और हिन्दू समाज में उनके स्थान के विषय में 1884 र्इ0 में अपना निर्णय देते हुए कलकत्ता के उच्च न्यायालय ने उन्हें शूद्र वर्ग में देखा। इससे क्षुब्द होकर उत्तर प्रदेश के कायस्थों ने इलाहाबाद हार्इ कोर्ट में यह तर्क दिया कि उत्तर प्रदेश और बिहार के कायस्थों की उत्पतित भिन्न है। सन 1889 में इलाहाबाद हार्इ कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के कायस्थों को क्षत्रिय मानते हुए अपना फैसला सुनाया। 23 फरवरी 1926 को पटना हार्इ कोर्ट ने उस समय तक के निर्णयों की समीक्षा करते हुए और हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर उन्हें क्षत्रिय घोषित किया। 1975 में इलाहाबाद से प्रकाशित एक पुसितका में उन्हें ब्राह्राण वर्ण का सिद्व किया गया। किन्तु ब्राह्राण उन्हें पाचवें वर्ण का मानते हैं और उनकी उत्पतित प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न बताते हैं। इसका खण्डन करते हुए पटना हार्इ कोर्ट ने कहा कि मनुस्मृति ने अध्याय 10 श्लोक 4 में मानव जाति को मात्र चार वर्णों में बांटा है। अत: कायस्थों का स्थान उन्हीं चार वर्णों में निशिचत करना पड़ेगा। उस निर्णय में ‘यम संहिता’ के उल्लेख से यह कहा गया कि धर्मराज द्वारा अपने कठिनाइयों की शिकायत करने पर ब्रह्राा ने अपनी काया से चित्रगुप्त को उपन्न किया और उन्हें ‘कायस्थ कहा और उनसे बारह सन्तानें हुर्इ जिनसे बारह उप जातियों के कायस्थ हुये। ‘पध पुराण’ उत्तर खण्ड में उन बारह पुत्रों का विवाह नाग कन्याओं से होना बताया गया है। विभिन्न स्मृतियों के आधार पर यह भी कहा गया कि कायस्थ का काम लेखक और गणक का था और उसकी अपनी लिपि थी, जिसे कैथी कहते हैं। पटना हार्इकोर्ट ने निर्णय दिया कि कायस्थ क्षत्रिय हैं। ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ में जो स्मृतियों और पुराणों से पुराना है, याज्ञवल्क्य ने प्रथम अध्याय के 11 वें मंत्र में कहा है कि सृषिट के आरम्भ में ब्रह्रा अकेला था। उसने पहिले ‘क्षत्र’ उत्पन्न किया। जब उससे काम न चला तो वैश्य उत्पन्न किया और जब उन दोनों से काम न चला तो शूद्र उत्पन्न किया। इस मंत्र में ब्रह्रा अलग अलग अंगों से अलग-अलग वर्णों के उत्पन्न होने की बात नहीं दुहरार्इ गर्इ है और न ‘काया’ से कायस्थ के चित्रगुप्त के उत्पन्न होने की बात कही गयी है। धर्म ग्रन्थों की यह अलग-अलग व्याख्यायें मात्र चिन्तन का परिणाम है, किसी इतिहास या प्रमाण पर आधारित नहीं हैं। स्मृतियों और पुराणों की रचना पांचवीं से आठवीं शताब्दी र्इसवी में हुर्इ। वे ब्रह्राा द्वारा वर्णों की उत्पतित के बारे में कैसे कुछ कह सकती हैं? अत: आज के वैज्ञानिक युग में हमें उन ग्रंथों की कल्पना की मूल व्याख्या से अलग हट कर विचार करना होगा। यदि कायस्थ पटना हार्इ कोर्ट के निर्णय के अनुसार अपने को क्षत्रिय मानते रहे तो उसका तार्किक परिणाम यह होगा कि वे ब्राह्राण से नीचे हैं जिन्हें क्षत्रिय भी क्षत्रिय नहीं मानते। अत: वे दूसरे दर्जे के क्षत्रिय हुये। आज हम यह मानते हैं कि सभी मनुष्य बराबर हैं। वैदिक युग में ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि वर्ण नहीं थे। सभी व्यकित अपने को आर्य कहते थे। उपनिषदों में यह कहा गया है कि सभी जड़ व चेतन वस्तुओं में र्इश का निवास है। अत: सब को अपना-सा ही समझो। फिर ब्राह्राण, क्षत्रिय और कायस्थ में भेद कैसा ? कायस्थों की उत्पतित के बारे में स्मृतियों और पुराणों की यह बात सही है कि वे प्रथम लेखक और गणक रहे हैं उन्हें धर्मशास्त्रों का ज्ञान था। इस व्याख्या के अनुसार वे ब्राह्राण थे, क्योंकि क्षत्रियों को भी लिखने और गणना करने के कार्य से कुछ लेना देना नहीं था और वैश्यों तथा शूद्रों को धर्मशास्त्रों से दूर रखा गया था। इतिहास तथा स्मृतियों और पुराणों की विषय वस्तु के अनुसार उनकी रचना र्इसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच हुर्इ। इससे भी कायस्थों की उत्पतित र्इसा की पाचवीं से आठवीं शताब्दी के बीच होना ही प्रमाणित होता है न कि ब्रह्राा से। पर यह सम्भव है कि प्रथम कायस्थ का नाम चित्रगुप्त रहा हो। सम्भवत: वे गुप्त राजाओं से सम्बनिधत और उनके विश्वस्त मंत्री या प्रधान लेखाकार या न्यायकर्ता रहे। इस बात को आज का इतिहास स्वीकार करता है। इस सम्बन्ध में दिल्ली विश्वविधालय के प्रोफेसर डी0 एन0 झा और कृष्ण मोहन श्रीमाली ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का इतिहास में पृ0 369 पर यह लिखा है :- आगे पृष्ठ 380 पर कहा गया है कि कायस्थों में विभिन्न वर्णों के लोग थे। वे राजा को विभिन्न कर लगाने की सलाह देते थे। धर्मशास्त्रों ने इस पर आक्षेप किया और ब्राह्राण वर्ग कायस्थों का विरोधी हो गया। कुछ ने उनको शूद्र कहा। किन्तु उनके सत्ता में रहने के कारण अनेक धर्मशास्त्रों को यह व्यवस्था देनी पड़ी कि वे क्षत्रिय हैं। 10वीं और 12वीं शताब्दी में विभिन्न स्थानों के आधार पर कायस्थों की उपजातियां बन गर्इ जैसे बंगाल से आये गौड़ कायस्थ, बल्लभी कायस्थ, सक्सेना, माथुर, श्रीवास्तव, निगम आदि। आज का कायस्थ अपने को क्षत्रिय कहलाने के लोभ में उन्हीं ब्राह्राणों को अपने से श्रेष्ठ मानने लगा है, वर्ण व्यवस्था में अपना स्थान ढूढने लगा है और स्मृतियों तथा पुराणों को मान्यता देने लगा है। वह ब्रात्य क्षत्रिय माने जाने से भी संतुष्ट हैं जैसा पटना हार्इ कोर्ट के उपरोक्त निर्णय में कहा गया है। कायस्थों के ब्रात्य क्षत्रिय मानने का तर्क यह है कि उन्होंने उपनयन संस्कार छोड़ दिया। पर इस कारण वे ब्रात्य ब्राह्राण भी तो हो सकते थे, क्योंकि व्यास के अनुसार लेखक को मीमांसा और वेदों का पारंगत होना चाहिए। वे सभी संस्कार स्मृतियों की देन हैं जिसमें अलग अलग वर्णों के वस्त्र, जनेऊ आदि के बारे में नियम दिये गये हैं। आज के संसार में स्मृतियों के भेदभाव पूर्ण नियम पूरी तरह नकार दिये गये हैं। स्वामी दयानन्द ने पुराणों को नकार दिया है। उन्होंने वर्णों की उत्पतित के मिथक को भी नकार दिया है। उन्होंने ब्राह्राण धर्म का यह नियम भी नकारा है कि सित्रयों और शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है। आर्य समाज के पुरोहित अन्य वर्णों के भी हो सकते हैं। इस अर्थ में भी ब्राह्राण की श्रेष्ठता को नकार दिया गया है। फिर प्रखर बुद्वि के स्वामी, देश दुनिया की गतिविधियों के जानकार कायस्थ ही उन स्मृतियों और पुराणों के दास क्यों बनें ? वे वर्ण व्यवस्था स्वीकार करके अपने को ब्राह्राणों अथवा क्षत्रियों में क्यों शामिल करें ? वे अपने को आर्यों की संतान कहते हैं। फिर वे अपने को आर्य ही क्यों न मानें ? वे क्यों न यह कहें कि जब सभी जड़ व चेतन वस्तुओं में र्इश का वास है तो मनुष्य के बीच ऊच-नीच कैसा? ब्राह्राण-क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कैसा ? आर्य और अनार्य कैसा ? 117256, गीता नगर, कानपुर 208 025
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श्री चित्रगुप्त वैदिक दृष्टि में |
प्रार्थनात्मक मन्त्र चारों वेदों में आया है। गायत्री मंत्र वैदिक वाडमय में अति प्रसिद्व है। किन्तु वह तीन वेदों में ही वर्णित है, जबकि ‘चित्रम देवानम’ मन्त्र सभी वेदों में प्रतिपादित हैं। इस सिथत से इस मन्त्र की महानता का परिचय प्रथम दृषिट में ही हो जाता है। आर्य समाजी लोग नित्य सायं-प्रात: सन्ध्या करते समय इस मन्त्र का पाठ करते हैं। वैदिक संध्या के उपस्थान मन्त्रों में यह प्रयुक्त है। वे इसे पर ब्रह्रा परमात्मा का प्रतिपादक मन्त्र मानते हैं। ‘चित्रम’ शब्द का अर्थ परमात्मा के वैचि़त्रय से लगाते हैं। ‘एकम सत विप्रा: बहुधा वदनित’ ऋग्वेद की प्रसिद्व उकित है। इसमें कहा गया है कि परमात्मा सत्य है और एक ही, किन्तु विद्वानों ने उसे बहुत प्रकार से वर्णन किया है। उसके नाम रुप बहुत हैं। प्राणों में झंकृत सोअहम में ऊं और राम, ये दो नाम शबिदत हैं। अत: इन दोनों को प्रणव कहते हैं। पौराणिक ग्रन्थों, गीता, रामायण महाभारत आदि ऐतिहासिक ग्रन्थों तथा आगमादिक साहित्य में ब्रम्ह्राा, विष्णु, महेश, अज, विधाता, धाता, विधि, वासुदेव, हरि, नारायण, कृष्ण, गोविन्द, जनार्दन, मधुसूदन, शिव, शंकर, महादेव, शम्भु, भैरव आदि हजारों नामों से पुकारा गया है। ‘चित्र’ भी उसी परमात्मा का नाम है। वह एक आश्चर्य है, महद आश्चर्य। गीता में कहा है – भक्त उसे अपने आप में साक्षात करता है। वह अन्तरात्मा है, आत्मा की आत्मा, परम आत्मा। जब समाधि अवस्था में व्यकित उस आत्मस्थ परमात्मा का दर्शन करता है वो वह आश्चर्य से भर जाता है। वेद उस आश्चर्यवत इष्ट देव को ही कहते हैं ‘चित्रम’। पदम पुराण, स्कन्द पुराण आदि में वर्णित श्री चित्रगुप्त कथा इस मन्त्र की ही विस्तृत व्याख्या है। पौराणिक ग्रन्थों ने वेद वचनों का उपवृहण किस प्रकार किया है, उसका यह प्रत्यक्ष उदाहण है। यह विश्व पहले ब्रह्राा की कल्पना में बसता है, तब वह साकार होता है। विश्व विधाता की कल्पना का साकार रुप है। इसलिए इसे कल्प कहते हैं। अपने मानस में कल्पना में निशिचत होने के कारण पूर्व में बने मकान या नगर का पुननिर्माण इंजीनियर कर देता है तथैव विधाता ने यह नया विश्व यथापूर्व बनाया ऐसा वेद मानते है। हाथी, घोड़े, बन्दर आदमी आदि के खिलौने बनाने वाला कारीगर पहले उसके सांचे बना लेता है, फिर हाथी के साचे में ढाल-ढाल कर अनेक हाथी और घोड़े के साचे से अनेक घोड़े बना लेता है। विश्वकर्मा ब्रह्राा ने भी पहले 84 लाख साचे बनाये। शास्त्र इनको चौरासी लाख योनिया कहते हैं। एक ही प्रकार का साचा क्यों नहीं बनाया ? चौरासी लाख साचे क्यों ? प्रत्येक योनि में समान सुविधा नहीं है। सिंह की पीठ में काटा चुभ जाये तो वह उसे निकाल नहीं सकता। पशु जीभ से पानी पीते हैं। अनेक जीवों के आख कान आदि इनिद्रयां नहीं होती। ये चौरासी लाख प्रकार के शरीर जीवों के लिए बनाये। जीवों का निर्माण विधाता ने नहीं किया। जीवात्मा तो अज है, कभी पैदा नहीं होती, इसे कोर्इ बनाता नहीं, यह तो अनादि काल से है, सनातन है, सदा से हैं। बनती नही ंतो बिगड़ती भी नहीं। जन्मती नही ंतो मरती भी नहीं। जिस वस्तु का आदि है उसी का अन्त है जो बनती है, वही बिगड़ती है, जो जन्म लेती है, वह मरती है। जीवात्मा तो ब्रह्राा की तरह ही अनादि है। श्री रामचरित मानस में कहा है – ‘र्इश्वर अंश जीव अविनाशी’ जीवात्मा के षडगुण आयुर्वेद ने बताये। इच्छा, द्वेष, सुख ज्ञान और प्रयत्न। ये छ: गुण वस्तुत: द्वन्द्वात्मक हैं। सुख और दु:ख एक द्वन्द है। सुख या दु:ख, दोनों एक दूसरे के विपरीत हैं, अत: तीन ही गुण रहते हैं। ज्ञातृत्च, कृतव्य और भोक्तृत्व। जीवात्मा में ज्ञान गुण नहीं है, ज्ञातृत्व गुण है अर्थात ज्ञान को ग्रहण करने का गुण। इसमें आनन्द गुण नहीं है, भोक्तृत्व गुण है अर्थात आनन्द को ग्रहण करने का गुण, तो ये ज्ञान और आनन्द किसके गुण हैं ? ये गुण है सचिचदानन्द परमात्मा के। परमात्मा सत हैं, चित्त है और आनन्द हैं। चित्त-ज्ञान। जीवात्मा अपने-अपने ज्ञान के अनुसार कर्म करता है। कर्म करना उसका स्वभाव है। किसी भी सिथति में वह कर्म रहित नहीं हो सकता। वेद जीवात्मा को ‘क्रतु’ नाम देते हैं जिसका अर्थ है कर्मशील अर्थात कर्म करना जिसका स्वाभाविक गुण है। ज्ञातृत्व गुण के विकास के लिए ज्ञान की आवश्यकता है। कृतत्व का विकास कर्म से होता है तथा भोक्तृत्व का विकास आनन्द से। अत: ज्ञान, कर्म और भकित ये तीन प्रभु प्रापित के मार्ग शास्त्रों में बताये हैं। इनमें से केवल ज्ञान या केवल भकित अथवा केवल कर्म पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि ज्ञान से केवल अज्ञान से मुकित मिलेगी ज्ञातृत्व का विकास होगा। ज्ञान, कर्म और भकित तीनों के समन्वय को गीता योग कहती है। इन तीनों का योग अनिवार्य है। अज्ञान, अकर्मण्यता और दुखों से, अशानित से मुकित का नाम ही मुकित है, जहा ज्ञान की परिपूर्णता, कर्म शकित का पूर्ण जागरण तथा सुख शानित आनन्द की प्रापित होती है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ कर्म करने का अधिकार जीवात्मा को है। ‘नहि कशिचत क्षणमपि जात्र तिष्ठत्य – कर्म कृत’ एक पल भर भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता। कर्मों का अच्छा बुरा फल उसे भोगना पड़ता है क्योंकि कर्म फल उसके हाथ में नहीं परमात्मा के अधिकार में है। होइ है सोइ जो राम रचि राखा। कर्मो के अच्छे बुरे फलों को भोगने के लिए ही चौरासी लाख योनियां हैं। जिस स्तर के कर्म होंगे उसी स्तर का शरीर मिल जायेगा। कर्मो का क्रमश सुधार करने के लिए ही इतनी योनियां बनार्इ हैं। कर्मों की अच्छार्इ बुरार्इ का निर्णय कौन करे ? यह शकित तो ब्रह्राा के पास भी नहीं थी। अत: ब्रह्राा ने दस हजार वर्ष की दीर्घ तपस्या की। समाधि खुलते ही देखा, एक दिव्य पुरुष सामने उपसिथत है। वे आश्चर्य में भरकर पूछने लगे – आप कौन हैं ? कहा से आये हैं ? इसी तथ्य को वेदों में कहा – प्रकृति पार प्रभु सब उर वासी, आप सम्पूर्ण प्रकृति से पार हैं। मेरी इस श्रेष्ठ कृति (प्रकृति) में आपकी गिनती नहीं है। आप प्रकृति से परे हैं। देवानाम आप सभी देवताओं से दिव्य हैं। दिव्यताओं के स्रोत हैं। सौन्दर्य के भी सौन्दर्य हैं। प्रकाशों के भी प्रकाश। न तत्र सूर्या भाति न चन्द्र तारकम सूर्य का प्रकाश आपके सामने निरस्त है, जैसे तारे सूर्य के सामने नहीं चमकते वैसे सूर्य आपके समक्ष निस्तेज है। न चन्दमा ही आपके सामने चमकता न तारक मण्डल। विधुत की दीपित आपके सामने तेज रहित है, इस अगिन की तो कोर्इ गिनती ही नहीं। वस्तुत: आपके प्रकाश से ही ये सब प्रकाशित है। इनमें अपना प्रकाश नहीं है। इन सबके प्रकाशक आप हैं। श्री चित्रगुप्त बोले – मैं एकदेशीय नहीं हू कि कहीं बैकुण्ठ कैलास, काशी, मथुरा, अयोध्या आदि में रहू, मैं तो इन सबमें सर्व व्यापक हू, सर्वत्र हू – आप्रा दयावा पृथिवी अन्तरिक्षम इस धरती के कण-कण में इसके ऊपर सम्पूर्ण अन्तरिक्ष में, जहा सूर्यादि ग्रह घूम रहे हैं, इन ग्रहों से भी परे धौ लोक में, सर्वत्र मैं विराजमान हू। देश काल दिशि विधि घटु माही, मैं सब के हृदय में निवास करता हू, घट-घट में समाया हू प्रकृति में देश काल दिशा विदिशा में व्याप्त हू और इनसे परे भी हू। वेद बताते हैं – ‘कस्मै देवाय हविषा विधेय’ आनन्द रुप ‘क’ परमेश्वर के लिए श्रद्वा की हवि समर्पित करें। ‘ख’ नाम आकाशवत व्यापक परमेश्वर का है। अत: ख को भी कहते हैं ‘रव’ अर्थात शब्द उसका गुण है। शरीर पंच कोशात्मक है, उनमें आनन्दमय कोश में जीवात्मा बसती है। परमात्मा सर्व व्यापक होने से जीवात्मा का भी अन्तरात्मा है। अत: जीव उसे अपने भीतर ही देख पाता है। क्योंकि वह आत्मस्थ है, हृदयस्थ है, कायस्थ है। विधाता बोले – आप कायस्थ हैं। चित्रगुप्त हैं। हमारे पास चौदह इनिद्रयां हैं। पाच कर्मेनिद्रयां और चार अन्त: इनिद्रयां, जिसको अन्त: करण चतुष्टय कहा है। अन्त: करण में मन बु़िद्व चित्त और अहंकार चार विभाग हैं। इन चित्रों में हमारे कर्मों का खाता अंकित है। ये चित्र जन्म जन्मान्तरों के कर्मों के रुप हैं। चित्रगुप्त वे दिव्य देवता हैं जो इन चित्रों का गोपन करते हैं, संरक्षण करते हैं। जो इन चित्रों के स्वामी हैं, चित्रगुप्त हैं। इन चित्रमय खातों को देखकर ही प्राणी के कर्मां को पढ़ते हैं तथा निर्णय करते हैं, दु:ख-सुख प्रदान करते हैं। इस प्रकार इस वेद मंत्र में भगवान चित्रगुप्त के दिव्य स्वरुप का शाबिदक चित्र किया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि चित्रगप्त स्वंय पर ब्रह्राा परमेश्वर हैं। ब्रह्राा के भी घ्यातव्य हैं, उपास्य हैं, आराध्य हैं। ब्रह्राा के पुत्र नहीं उनके र्इश्वर हैं, उनमें व्यापक हैं। पुकारने पर अवतरित होते हैं। कर्म फलों के दाता हैं, अच्छे बुरे कर्मों के निर्णायक हैं। देव, दानव, यक्ष, किन्नर, ब्रह्राा, विष्णु, महेश सभी उनके न्याय क्षेत्र में आते हैं। रामावतार के समय बाली को छिप कर मारा तो कृष्णावतार में भील का बाण खाकर बदला चुकाना पड़ा। तुलसी के शाप से सालग्राम को पत्थर बनना पड़ा। नारद के शाप से नाभी विरह में भटकना पड़ा। सभी को भगवान चित्रगुप्त की न्याय तुला पर खरा उतरना पड़ता है। आइए, हम सभी कायस्थ अपने कुलदेव भगवान चित्रगुप्त की आराधना कर अनन्त पुण्य प्राप्त करें। पीठाधिपति एवं अध्यक्ष |
कायस्थ : एक पुरातातिवक विवेचन |
‘कायस्थ’ शब्द आज एक ऐसा शब्द है जो चित्रगुप्त की विभिन्न सन्तानों से उदभूत हुये महापरिवार का धोतक है। आज भारतीय समाज में ‘कायस्थ’ एक ऐसी जाति है जो वैदिक वर्ण-व्यवस्था के लगभग बाहर समझी जाती है और कायस्थ लोगों को ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र नामक वर्णो में प्राय: अनितम वर्ण में समिमलित समझा जाता है। यह बात अलग है कि उन्हें उच्च पदस्थ प्रशासक के सनिनकट होने के कारण समाज में सम्मान की दृषिट से देखा जाता है। किन्तु इस लेख में ‘कायस्थ’ शब्द के ऐतिहासिक महत्व और अर्थ पर विचार किया गया है। यों स्व0 रघुबर मिटठूलाल शास्त्री ने सन 1974 र्इ0 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘कायस्थ कौन है ?’ में इस बात पर व्यापक प्रकाश डाला है कि ‘कायस्थ’ शब्द जातिवाची न होकर पदवाची है और यह पद प्राय: ब्राह्राण को ही दिया जाता है। परन्तु यहां पर पुरातातिवक दृषिट से इसी बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। कुछ वर्ष पहले तक कायस्थों का असितत्व गुप्तकाल में स्वीकार किया जाता था क्योंकि उसी काल से ‘कायस्थ’ शब्द का उल्लेख मिला है। कुमारगुप्त प्रथम तथा बुध गुप्त के दामोदरपुर (बंगाल) ताम्रपत्र अभिलेखों में उपरिक कुमारामात्य, नगरश्रेषिठ, सार्थवाह तथा प्रथम कुलिक के साथ-साथ प्रथम कायस्थ के उल्लेख पाये जा चुके हैं जिन्हें सर्वसम्मत पदाधिकारी माना जा चका है। दोनों अभिलेख इस प्रकार हैं – कुमारगुप्त प्रथम का दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ‘संवत 200+20+4 फाल्गुण दिo 7 परमदैवत परम-भटटारक महाराजाधिराज श्री कुमारगुप्ते पथ्वीपतौ तत्पाद-परिगृहीते पुण्ड्रवद्र्धन भुक्तादूपरिक चिरादत्तेनानुवहवानक कोटिवर्ष विषये च तन्नियुक्त कुमारामात्य वेत्रवर्मन्यधिष्ठाणाधिकरण्च नगरश्रेषिठ धृतिपाल साथ्र्वहबन्धुमित्र प्रथमकुलिक धृतिमित्र प्रथमकायस्थ शाम्बल पुरोगे संव्यवहरति”- अनुवाद “संवत 124 फाल्गुन दिन 7 । परमदैवत परमभटटारक महाराजाधिराज श्री कुमार गुप्त पृथिवीपति के पाद द्वारा गृहीत पुण्ड्रवर्धन भुक्ति किे उपरिक चिरातदत्त के समृद्ध शासन के अन्तर्गत कोटिवर्ष विषय है। उनके द्वारा नियुक्त इस विषय के विषयपति कुमारामात्य वेत्रवर्मन और अधिष्ठान (नगर) के अधिकरण के सदस्य नगरश्रेषिठ धृतपाल, सार्थवाह बन्धुमित्र, प्रथमकुलिक धृतिमित्र, प्रथमकायस्थ शाम्बपाल तथा पुरोग यह सूचित करते हैं।” दामोदरपुर से प्राप्त कुमारगुप्त प्रथम के संवत 128 वाले दूसरे ताम्रपत्र-अभिलेख में भी इन्हीं अधिकारियों का उल्लेख है। बन्धुगुप्त का दामोदरपुर ताम्रपत्र अभिलेख ‘फाल्गुणादि 10+5 परमदैवत-परमभटटाकर-महाराजाधिराज श्री बुधगुप्ते पथ्वीपतौ तत्पाद-परिगृहीतस्य पुण्ड्रवद्र्धन भुäावपरिक-महाराज जयदत्तस्य भोगेनानुवहमानके कोटिवष्र्षविषये च तन्नियुक्तकेहयुक्त शण्डके अधिष्ठानाधिकरणं नगरश्रेषिठरिभुपाल सात्र्थवाह वसुमित्र-प्रथमकुलिकवरदत्त-प्रथमकायस्थविप्रपाल पुरोगे च सम्व्यवहरति-‘ अनुवाद-“फाल्गुन दिन 15| परमदैवत परम-भटटारक महाराजाधिराज श्रीबधुगुप्त पथ्वीपति हैं। उनके परिगृहीत पुण्ड्रवर्धन भुä किे उपरिक जयदत्त के प्रशासन में समृद्धि प्राप्त करने वाला कोटिवर्ष विषय, वहाँ उनके द्वारा नियुä आयुä शण्डक और अधिष्ठान के अधिकरण के सदस्य-नागरश्रेषिठ रिभुपाल, सार्थवाह वसुमित्र, प्रथमकुलिक वरदत्त, प्रथमकायस्थ विप्रपाल और पुरोग यह सूचना देते हैं।” गुप्तकाल में राज्य को देश तथा उसकी इकाइयों को भुä अिैर विषय कहा जाता था। ‘भुä’ि आजकल की कमिश्नरी तथा विषय’ आजकल के जिले के समान रहे होंगे। भुä कि शासनकेन्द्र अधिष्ठान कहलाता था और विषय के प्रशासक को विषयपति कहते थे जो कि कुमारामात्य (आजकल के आर्इ.ए.एस. जैसे) की श्रेणी के हुआ करते थे। उपरोä अभिलेखों में पुण्ड्रवर्धन भुä किे अंतर्गत कोटिवर्ष नामक विषय में की गर्इ कार्यवाही में जिन पदाधिकारियों का उनके नाम सहित उल्लेख हैं वे हैं नगर-श्रेषिठ-धृतिपाल, सात्र्थवाह-बन्धुमित्र, प्रथम-कुलिक-धृतिमित्र और प्रथमकायस्थ-शाम्बपाल। गुप्तकालीन, यह विवरण स्पष्टरूप से कायस्थ केा एक पद के रूप में प्रस्तुत करता है, जातिवाची कदापि नहीं। इसी प्रकार कुमारगुप्त प्रथम से भी पहले चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य को पटरानी ध्रुवस्वामिनी की गढ़वा से मिली एक मोहर पर भी कायस्थ का उल्लेख है। मोहर का अभिलेख इस प्रकार है- ‘परमभटटारक परमभागवत गरूड़मर्दक लिच्छवि दौहित्रस्य-श्री महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्तस्य विक्रमादित्यस्य ज्येष्ठमहिष्या: ध्रुवस्वामिन्या: ज्येष्ठकायस्थस्य’- अर्थात “परमभटटारक परमभागवत गरुड की मुद्रा रखने वाले लिच्छवियों के दौहित्र (अर्थात समुद्रगुप्त के पुत्र) महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त की श्रेष्ठ महिषी अर्थात पटरानी के ज्येष्ठ कायस्थ”- उपरोä अभिलेखों में ‘प्रथमकायस्थ’ तथा ‘ज्येष्ठ कायस्थ’ का अर्थ प्रधान लिपिक से है कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल में पुण्ड्रवर्धन भुä मिें प्रथमकायस्थ शाम्बपाल था जबकि बुधगुप्त के शासन के समय प्रथम कायस्थ विप्रपाल था। गुप्तकाल के कतिपय अन्य ग्रन्थों में भी पदवाची शब्द ‘कायस्थ’ का उल्लेख पाया गया है। श्रीशूद्रक विरचित मृच्छकटिकम, नाटक के नवम सर्ग में ‘श्रेषिठ-कायस्थौ’ अर्थात श्रेषिठ और कायस्थ का एक साथ उल्लेख है। जिस प्रकार श्रेषिठ का अर्थ सेठ (नगर-सेठ) था उसी प्रकार कायस्थ का अर्थ पेशकार था जो जो न्यायाधिकरण (न्यायालय) की कार्यवाही को लिपिबद्ध करके पेश करता था। गुप्तकालीन एक भाँड़ ग्रन्थ श्यामिलक विरचित ‘पादताडितकम’ में भी ‘कायस्थ’ शब्द आता है जहाँ उसे धूस लेने वाले कर्मचारी के रूप में अंकित किया गया है। एक स्थान पर कचहरी के कर्इ कर्मचारियों के नाम लिए गये हैं जैसे पुस्तपाल, काष्ठक, महत्तर तथा कायस्थ। इस विवरण से भी ‘कायस्थ’ शब्द लिपिक जैसे किसी पद का बोध कराता है जाति का नहीं। लगभग 7-8 वर्ष पहले मथुरा से मिले प्रथम शती र्इ. के एक अभिलेख में आये ‘कायस्थ’ शब्द से कायस्थों का ऐतिहासिक असितव र्इसा की प्रथम शती से ही स्वीकार किया जा सकता है। दिल्ली-आगरा मार्ग पर सिथत गोवद्र्धन बार्इ-पास के निकट एक कम्पाउण्ड में नींव खोदते समय शीशविहीन बुद्ध की एक प्रतिमा मिली जिसके पादपीठ पर प्रथम शती र्इ. के अक्षरों वाली ब्राáी लिपी में एक छोटा-सा लेख अंकित है जिसमें एक वंश की तीन पीढि़यों के नाम दिये गये है। – कायस्थ भêप्रिय, पिता भêसिेन तथा पितामह का नाम भêहिसितन। कायस्थ भê प्रिय ने उä बुद्ध प्रतिमा की स्थापना कवार्इ थी। भê प्रिय के पिता का नाम भêसिेन तथा पितामाह का नाम भêहिसितन था। यहाँ पर केवल भê्रिप्रिय के नाम के आगे ‘कायस्थ’ शब्द दिया गया है, उसके पिता भêसिेन तथा पितामह भêहिसितन कायस्थ नहीं थे। स्पष्ठ है कि यहाँ भी कायस्थ शब्द जातिवाची न होकर पदवाची है। यदि ‘कायस्थ’ जातिवाची होता तो भêप्रिय की ‘कायस्थ’ पद पर नियुä किी गर्इ थी जबकि उसके पिता भêसिेन और पितामह भêहिसितन उस पद पर नहीं रहे थे, इसलीए उनके नाम के आगे ‘कायस्थ’ शब्द नहीं आया है। ऐसा जान पड़ता है कि कुषाणकाल में ‘कायस्थ’ एक उच्च पद था जिससे व्यä सिमाज में सम्मानित होता था। कम से कम प्रशासन में सम्बद्ध होने के कारण उसकी विशेष महत्ता थी तभी भêसिेन ने उपने नाम के पहले अपने पद ‘कायस्थ’ का उल्लेख करवाया था। सी.एम.पी. डिग्री कालेज के संस्कृत विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष तथा विधान परिषद के सदस्य स्वर्गीय श्री श्यामनारायण जी का विचार था कि भêहिसितन, भêसिेन तथा भêप्रिय मथुरा के कायस्थ थे। सम्भवत: इन्हीं के वंश वाले ‘माथुर कायस्थ’ कहलाये। श्यामनारायण जी यह भी मानते थे कि मथुरा के कुषाणकाल से बहुत पहले आकर बसे हुए यूनानी भारतीय भागवत धर्म से प्रभावित होकर वैष्णव बन चुके थे जैसा कि विदिशा के निकट मिले एक यूनानी राजदूत हेलियोडोरस के स्तंभ-अभिलेख से स्पष्ट है। मथुरावासी इन्हीं वैष्णव धर्मावलम्बी यूनानियों ने जब चारों वेदों का अध्ययन किया तब चतुर्वेदी कहलाये। पर चूँकि वे विदेशी थे इसीलिए भातीय समाज में उन्हें कभी पुरोहित नहीं बनाया गया। लेकिन ये मथुरा के चतुर्वेदी केवल मथुरा कायस्थ के यहाँ पौरोहित्य किया करते थे। इस आधार पर श्री श्यामनारण जी का अनुमान था कि माथुर कायस्थ और माथुर चतुर्वेदी संभवत: दोनों के पूर्वज यूनानी रहे होंगे। देखने में भी दोनों गौर वर्ण के होते हैं। अत: उन्हें मथुरावासी यूनानी के वर्णशंकर वंशज माना जा सकता है। संपेक्ष में कायस्थ मूलत: एक पद था जिसका असितत्व अब कुषाणकाल तक असंदिग्धरूप से स्वीकार किया जा सकता है। उस पद पर प्रतिष्ठा पाने पाले प्राय: ब्राáण हुआ करते थे। आगे चलकर कायस्थों का एक वर्ण बन गया जैसा कि जैन धर्मवलमिबयों ने बना लिया। आज अपने नाम के साथ जैन लिखने वाले प्राय: अपने बच्चों के विवाह सम्बध जैन-परिवार में ही करते हैं। जैन आज धर्म नहीं अपुति एक जातिवाची शब्द बन चुका है। ठीक यही बात कायस्थों पर लागू होती है। |
वेद में चित्रांश प्रमाण |
संसार के अति प्राचीन ग्रन्थ वेदों में चित्र का वर्णन, इन्द्र, मित्रवरुण अगिन, मारूत सोम जैसे देवतुल्य रूप में आया है, जिसकी पुषिट डा0 रांगेय राघव की ‘प्राचीन भारतीय परम्परा एवं इतिहास’ नामक पुस्तक में भी की गर्इ है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भी वेद में वर्णित चित्र का अर्थ अत्यन्त ऐश्वर्यवान दान आदि गुणों में महान, आश्चर्य युä गुण कर्मवान किया है, जो कि राज्य लक्ष्मी से परिपूर्ण राजन के रूप में सम्बोधित है। ऋग्वेद मंडल 10 सूä 47-48 वर्ग 3-4 मंत्र 1 से 5 दुष्टों को दण्ड देने वाला, उत्तम रक्षाकर्ता, उत्तम नीति एवं ज्ञाता चारों समुद्रों के शासक के रूप में चित्र का वर्णन किया गया है। “युद्धस्ववस सुनीथ चतुर्णां समुद्र-धरणी-रथीणाम-चाकृत्वशस्य भूरिवाण सयम्यं ‘चित्र वषण’ रवि दा।” ‘ऋ-’10-47-48-21 ऋग्वेद मण्डल 10 के विवस्वत कुल और यम वंश में चित्र चित्रथ, चित्रम, चित्रचारू, चित्रभानु आदि का उल्लेख मिलता है। ‘हे चित्राय। आप आश्चर्य रूप से राज्य सेना दास पुत्र, मित्र रत्न हाथी घोड़े आदि से सम्प™ा उत्तम सुखो को सिद्ध करते हैं। आपको इन्द्र और वरुण विजय युä करते हैं और आप हमारी आवश्यकतायें पूर्ति करते हैं। ऋ 1-1-17।। 7।। “(चित्रामि) चित्र का (चित्रशोचि) चित्र का अदभुत प्रकाश जो संग्राम में रक्षा के लिए स्तुति योग्य है, ऐसे ज्ञान और पुरुपार्थ से युä हे चित्र। आप धनधान्य से युä जनों के लिए श्रेष्ठ बल व पराक्रम से धन व धान्य धारण कीजिए। हे (शिव प्रवान) सुन्दर नासिका और रूपवान बलिष्ठ ब्रज समान (गोमामित) गोत्रनाश करन वाले ‘चित्र’ (इन्द्र चित्र) इन्द्र समान चित्र आप दुष्टों को विर्दीण करने वाले हिसकों का नाश करो”। (चित्र भानु) सूर्य समान तेजस्वी सबको आद देने वाला आनन्द प्रदाता अभीष्ठों को सुनने वाला ‘चित्र’ उपास्य देवता है। ऋ 8-44-6 ‘जो लोग जन कार्य में अपना धन बुद्धि शरीर और मन लगाते हैं व दाश्वतान कहे जाते हैं अैर जो अपने सदाचारों से प्रजा को भूषित रखते हैं और जो प्रत्येक कार्य में सक्षम है, वे अलंकृत कहलाते हैं। ऐसे प्रसंशनीय, दान सत्कार, पारितोषक बांटने वाले राष्ट्र में उच्चाधिकारी “चित्रम” कहे जाते हैं।” ऋ 8-67-3 ‘चित्रवत राजा राजका इत अन्यके’ ‘चित्र देवानामुदगादनीक वसो चित्रस्य राधस: यज्ञेषु चित्रमाभर’ “भुवनेषु चित्र बिम्ब विशे-विशे’ राजा चित्र के समान अन्य कोर्इ नहीं है, चित्र नाम अदभुत आश्चर्यकारणम देवता के समान सुखद और सुन्दर है उसक धन सूर्य की किरणों की तरह सभी को प्राप्त होता है, यज्ञ आदि में चित्र की सम्पदा प्राप्त होती है, भवनों पुरों से सरिता सरोवरों और उधानों में चित्र का ऐश्वर्य प्रतिबिमिबत होता है। अर्थवेद 06-106-32-33-35 में भी ‘चित्र’ को जीवनदाता महान देव समान तेजस्वी विजयी मित्र वरुण सूर्य और आत्मा आदि विशषज्ञों से वर्णित किया गया है। “चित्र नामक राजा ने सरस्वती नदी के तट पर इन्द्र के लिये यज्ञ किया उस यज्ञ में अत्यधिक धन और दान मिलने पर मंत्रदृष्टा ऋषि विकल्प करता है कि क्या इतना धन इन्द्र ने दिया या सरस्वती ने अथवा हे राजन चित्र आपने हमें इतना धन और द्रव्य प्रदान किया है। अन्य मंत्र में ऋषि निशिचत करते हैं कि यह अनन्त धन राशि सहस्त्र की संख्या में राजाओं के राजा ‘चित्र ने हमें प्रदान किया है क्योंकि सरस्वती तट पर सिथत अन्य जो छोटे छोटे राजा है उन सभी को भी तो राजा चित्र ने ही धन धान्य से परिपूर्ण किया। उसकी तुलना मंत्र में इस प्रकार की गर्इ है कि जिस प्रका मेघ की वर्षा से पृथ्वी सिंचित होकर सभी प्राणियों के लिए जीवनदायी होती है, उसी प्रकार राजा चित्र का धन भी सभी प्राणियों के लिए जीवन दायक होता है।” तैत्तरीय ब्राáण कांड 3-1-9 खण्ड 14 में भी ऋग्वेदीय मंत्रों में वर्णित राजा चित्र के यज्ञ तथा दान की प्रशंसा के श्लोकों में राज राजेश्वर ‘चित्र’ को दाता प्रदात्ता केतु सविता, प्रसविता, शासता, भन्ता आदि विभूषणों से अलंकृत किया है। “चित्र केतर्ुदाता प्रदाता सविता प्रसविता शासतानुभव्ता” कृष्ण दैपायन वेद व्यास ने उत्तर मीमांसा अध्याय 1 अधिकरण 3 सूä 35 में ‘चैत्रथ’ का क्षत्रिय वर्ण होना निम्न श्लोक में वर्णन किया है ‘क्षत्रिय गतेश्चोत्तरय चैत्ररअबेन लिगात।’ आदि शंकराचार्य के भाष्य में “चित्ररथ” सम्बन्धी श्लोक की व्याख्या संस्कृत भाषा में इस प्रकार की है। (संस्कृत श्लोक उद्धत न करके उसका हिन्दी अर्थ प्रस्तुत है)- “कपि गोत्र में उत्प™ा महर्षिगण कापेय कहलाते हैं- इन कापेय महर्षि ने दो रात्रियों के विधान का चित्ररथ नामक राजा को यज्ञ कराया जिससे चित्रवंश में उत्प™ा प्रथम पुत्र अत्यन्त शौर्यवान क्षत्रपति राजा हुआ और अन्य उसके अनुचर कहलाये। राजा चित्ररथ द्वारा अनुष्ठान किय जाने के कारण से ही द्विरात्री यज्ञ का कार्य चैत्ररथ अभिप्राय से विख्यात हुआ।” यजुर्वेदीय मैत्रेयी संहिता में ‘चित्र’ नाम की व्याख्या भी संस्कृत श्लोकों में की है जिसका सायणाचार्य का भाष्य अर्थ इस प्रकार है- ‘चित्रे चित्रा नक्षत्र अभिषिज्यनति अभिषेक कुर्वनित चित्राय चित्र नाम असिमन चित्रगुप्ते दधाति तेजो वीर्यादिक धारयनित तस्मात तत: वा एष: अभिषेक प्राप्त: चित्र आश्चर्य यथास्यतथा राजा गुप्तें अपाम नाना तीर्थोदकानां ऐनम चित्रम चित्रे विचित्रै अभिषेक अभिषियनित अभिषेक कुर्वनित।” हिन्दी अर्थ – “चित्रा नक्षत्र मेचित्र को अभिषेक करके “चित्रायचित्र” नामक राजा जो चित्रगुप्त के तेजस्वी वीर्य धारण से प्राप्त राजा चित्र (आश्चर्य) नाम से विख्यात हुआ-और उसका राज-मर्यादा के अनुसार आश्चर्य युä वैभव पूर्ण नाना तीर्थों के बल से अभिसिचित ढंग से किया गया। बहौश्य क्षत्रिय जाता कायस्थ अगतितवे। “प्राचीन काल में क्षत्रिय जाति में कायस्थ इस जगत में हुये उनके पूर्वज चित्रगुप्त स्वर्ग में निवास करते हैं तथा उनके पुत्र चित्र इस भूमण्डल में सिथत है उसका पुत्र चैत्रस्थ अत्यन्त यशस्वी और कुलदीपक है जो ऋषि-वंश के महान ऋषि गौतम का शिष्य है वह अत्यन्त महाज्ञानी परम प्रतापी चित्रकूट का राजा है।” ‘कायस्थ क्षित्रयों वर्णों न तु शूद्रय कदाचन। अतोभवेयु संस्कारा गर्भधानादिकोदश।’ (‘शब्दकल्पुद्रुम विज्ञान तन्त्र) कायस्थ क्षत्रिय वर्ण हैं, शूद्र वर्ण कदापि नहीं क्योंकि यह अत्यन्त उच्च ग्यारह संस्कारों गर्भाधान आदि का पालन करते हैं। शब्द कल्पद्रुम अति प्राचीन पुस्तक है, जो संस्कृत भाषा में है, उसमें कायस्थ शब्द का अर्थ इस प्रकार दिया हुआ है- कास्थ-कायेषु सर्वभूतेषु (सर्व भूत शरीरेषु) अन्तर्यामी यथातिष्ठतीति कायेब्रá कायेतिष्ठतीते (काय़स्थ़क) नर जाति विशेष। “हे सुन्दर चमकीले बालों वाले देव (शोचिष्केश) ‘चित्रश्रवस्तम’ आप अदभुत यश वाले (पुरूप्रिय) सर्व प्रिय हैं। आपको सब प्रजाये समर्पण के लिए हव्य प्रदान करने के लिए पुकार रहे हैं। ऋ1-45-6 यज्ञ 1-15-31 “चित्रगुप्त कायस्थस्य स्पष्ट क्षत्रिय धर्म: प्रतिपादित:। -चित्रगुप्त कायस्थ स्पष्टतया क्षत्रिय धर्म प्रतिपादित करते है। इसी प्रकार चन्द्रसेनी कायस्थ भी जो दोनों एक समान ही धर्म का पालन करने वाले हैं तथा बिल्कुल एक समान हैं। “कायस्थो लेखकस्तथा” – शुक्रनीति अध्याय 2 इस प्रकार वेद में वर्णित राजा चित्र, चित्र चैत्ररथ, चित्रभानु, चित्रचारू, चित्रदेवानां चित्रभि चित्रायं चिनमर्क, चित्रबज्रहस्त, चित्रोघदभ्राट, चित्रासुरो, चित्र: केतर्ुदाता, चित्रश्रवस्तव एवं चित्रसेना के प्रसंगों के मंत्र उदधृत किये गये है। अत: वेदों में चित्र वंश के प्रमाण स्पष्टतया मिलते हैं। जिसका वर्णन अदभुत आश्चर्ययुä यशवान धनधान्य से प्रजा को परिपूर्ण करने वाला दानवीर दाता प्रदाता क्षत्रिय राजा के रूप में किया गया है। इस उपरोä प्रमाणों से समस्त चित्रगुप्त और चन्द्रसेनी कायस्थ बन्धु चित्र वंश के सिद्ध होने से चित्रांश उपाधि से अलंकृत हुये हैं। चित्राशंकुटीर न्यूचन्द्रनगर |
प्राचीन धर्म ग्रन्थों में कायस्थ |
चित्रगुप्त वंशियों की उत्पतित धर्मराज ने जिन्हें पापियों को दण्ड देने का अधिकार मिला है, श्री ब्रह्राा जी की सेवा में जाकर निवेदन किया है कि ऐसा भारी काम मुझसे नहीं चल सकता। ब्रह्राा जी ने कहा- ‘अच्छा, मैं तुम्हारी सहायता करुगा’ धर्मराज को विदा करके ब्रह्राा जी ध्यान में लग गये। देवताओं के हजार वर्ष तक तप करने पर उन्होंने आख खोली, तो क्या देखा कि पुरुष श्यामवर्ण, कमल नयन, सुराहीदार गर्दन वाला जिसका मुख पूनों के चाद की तरह चमकता था, हाथ में कलम दवात और पाटी लिये आगे खड़े हैं। ब्रह्राा जी ने उनसे कहा कि ‘तुम मेरी काया से उत्पन्न हुए और काया में सिथत थे, इसी से तुम्हारा नाम कायस्थ रखा गया और यह चित्र वाक से हमने गुप्त रक्खा था, इसलिये पंडित तुम्हें चित्रगुप्त कहेंगे। फिर चित्रगुप्त कोटिनगर में जाकर देवी की आराधना में लगे और परमेश्वरी का उन्होंने व्रत किया और स्तुति की। उन्होंने प्रस™ा होकर तीन वर दिये कि परोपकार हो और अपने अधिकार पर सिथर रहो और चिरायु हो। |
प्राचीन भारतीय अभिलेखों में कायस्थ |
प्राचीन भारतीय इतिहास की मूल्यवान एवं आधार सामगि्रयों में उत्कीर्ण लेखों का अत्यधिक महत्व है। उनके अनुशीलन से भारत के पुरातन, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकल्पों पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। भारतीय समाज का विभाजन आरमिभक अवस्था में वर्ण के आधार पर था। प्राचीन भारतीय अभिलेखों में शासन अथवा दान के प्रसंग में दाता की जाति का उल्लेख हुआ है। पूर्व मध्यकालीन अभिलेखों के अध्ययन एवं अनुशीलन से भारतीय समाज में ‘कायस्थ’ नामक जाति की जानकारी मिलती है। यों तो अशोक के अभिलेख में कायस्थों की चर्चा है। उसमें कायस्थों को ‘लजुक’ (स्ंरनां) तपजमत अथवा राजुक (त्ंरनाें) प्रान्तीय राज्यपाल पद से सम्बोधित किया गया है। डा0 ब्युलर ने राजुक को मुख्यत: कायस्थ ही कहा है। पांचवीं सदी के गुप्तकालीन दामोदरपुर ताम्रपत्र (ए0 इ0 15) में प्रथम कायस्थ अथवा ज्येष्ठ कायस्थ के नाम से उल्लेख मिलता है जो विषय-परिषद के सदस्य होते थे। प्राय: प्रशसित के अन्त में ‘कायस्थेन’ लिखित वाक्य का प्रयोग मिलता है। अभिलेखों में बंगाल के गौड़ कायस्थ का विशेष वर्णन आया है। गौड़ कायस्थ प्रशसित लिखने में पूर्ण दक्ष थे तथा सुलेखक होने के कारण मध्य प्रदेश तथा राजपूताना के राजाओं द्वारा बुलाए जाते थे (लिखित रुचिरा अक्षरा गौडेन ए0 इ0 17 पृष्ठ 129, 147) इसके अतिरिक्त खुजराहो लेख (10वीं सदी) मध्य प्रदेश के कलचुरि प्रशसित तथा मारवाड़ से प्राप्त चहमान लेखों में ‘कायस्थ’ की प्रशंसा की गयी है क्योंकि वह राजकीय पत्रों को सुन्दर और ललित अक्षरों में लिखता था। विरचित शुभ कर्मानाम कायस्थ वंश: (ए0 इ0 14 पृष्ठ 14) चन्देलों के खजुराहो से प्राप्त प्रशसित से ज्ञात होता है कि कायस्थ ‘करण’ या करणिक नाम से भी पुकारे जाते थे। उन्हें स्कूल संस्कृत का अच्छा ज्ञान रहता था, इस कारण शुद्व लिख सकते थे। लिखितं वेद करणिक श्री सर्वानन्देन (ए0 इ0 1 पृष्ठ 129) बिहार से प्राप्त प्राचीन अभिलेखों में भी कायस्थों की चर्चा है। 1175 र्इ0 के गया जिला में जहानाबाद अवर प्रमण्डल के ‘मेरा विष्णु मनिदर’ अभिलेख में भी प्रशसित लेखक के रुप में कायस्थ जाति के माहेश्वर का उल्लेख मिलता है जिसके पिता धीरेश्वर थे। ‘रो (∙) विलासु, भावासु, कायस्थ कुलवंतस: कवि: स धीरेश्वर सूनुरेतां, महेश्वरो निर्मितवान प्रशसितम। कलचुरी (मध्य प्रदेश) राजाओं के अभिलेखों से भी कायस्थों के महत्व के विषय में जानकारी मिलती है। विलासपुर जिला में धुरी 7 किलोमीटर पर सिथत कोसगर्इ के किले से वाहरेन्द्र राजा का शिलालेख प्रकाश में आया है। यह राजा पन्द्रहवीं शती के अनितम तथा सोलहवीं शती के आरम्भ में राज्य करता था। इस प्रशसित में राजा के गुणों का वर्णन किया गया है तथा साथ में प्रशसित लेखक का भी विशद विवेचन है जो जाति का कायस्थ है यथा (इस) सुन्दर प्रशसित को उस रामदास ने प्रसन्नता पूर्वक लिखा जो उदार है, कायस्थ वंश में जन्मा है और मोहन के बेटे के नाम से पृथ्वी पर प्रसिद्व है। वाहरेन्द्र (राजा) का विश्वासपात्र एवं विश्व का उपकार करने वाला कायस्थ-कुल का दीपक श्रीमान जगन्नाथ है।
प्रससितम्प्रशस्तामलेखीदुदा (रस्स) दा
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कायस्थों के चार-धाम |
यू तो भारतवर्ष में भगवान चित्रगुप्त जी के अनेक मंदिर हैं, परन्तु इनमें से पौराणिक एवं एतिहासिक महत्व के प्रथम चार मंदिर, कायस्थों के चार धामों के समतुल्य महत्व रखते हैं। ये महत्वपूर्ण और प्रसिद्व तो हैं ही, प्रश्न है हमारी आस्था और विश्वास का। ये मंदिर निम्न हैं :-
अब पटना का श्री चित्रगुप्त आदि मंदिर कायस्थों की जन-भावना का प्रतीक बन, कायस्थों के चारों धामों में से चौथे स्थान का हकदार है। |
कायस्थ जाति की जीवन पद्दति |
‘हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी। समाज, सभ्यता और संस्कृति सतत प्रवाहित सलिला है। प्रतिपल अनवरत परिवर्तन ही सृष्टि की जीवन शकित है। व्यषिट से समषिट, बिन्दु से सिन्धु, आत्म से परमात्म की यात्रा ही लौकिक और अलौकिक के मध्य संबंध सेतु हैं। एक से अनेेक होने की इच्छा ही सृषिट के सृजन का मूल कारण है। ‘एको हम बहुस्याम’ की भावना ही परमपिता से सृषिट संरचना कराती है। इसलिए कंकर-कंकर में शंकर है। कण-कण में भगवान है। यही भाव आत्म को परमात्म बनाता है। ‘शिवो हम’ ‘अहम ब्रह्राासिम’ ‘अयमात्मा ब्रह्रा’ आदि से र्इश्वर और मनुष्य का वही अभिन्न संबंध अभिव्यक्त होता है जो ‘चित्रगुप्त’ और ‘कायस्थ’ का है। परमपिता चित्रगुप्त चित्रगुप्त अवतरण का आलौकिक प्रसंग सर्वविदित है। परमपिता ब्रह्राा की काया से उपजे ब्रह्राात्मज श्री चित्रगुप्त वास्तव में विचार शकित से उत्पन्न कर्म शकित हैं। परात्पर ब्रह्रा ही हैं जों अव्यक्त से व्यक्त हुए। वे ब्रह्राा की काया हैं, ब्रह्राा का काया रुप प्रगटीकरण हैं। सचराचर की समस्त कायाओं में जो सिथत है वहीं कायस्थ हैं-”काये सिथति: स: कायस्थ:। समस्त कायाओं में सिथत कौन हो सकता है? केवल परम ब्रá, तब कायस्थ वह है जो देव चित्रगुप्त का अंश है, सचराचर में व्याप्त है, दिक दिगंत तक लीन है, अविनाशी, अनश्वर, अनादि, अनंत हैं। विष्णु धर्मोत्तर पुराण, तृतीय खण्ड, अध्याय 50 श्लोक 13 के अनुसार- ”चित्रगुप्तो विनि र्दिष्टस्तथात्मा सर्वदेहग:। अर्थात तथा (उसी प्रकार से) सब देहों में रहने वाला आत्मा (गीता में पुरुषोत्तम, परमात्मा) को विनिर्दिष्ट (चित्रित, इंगित) किया गया है। धर्माधर्म का निर्णय करने वाली लेखनी और पत्र उनके हाथ में सिथत है। ये लेखनी भाग्य लिपि लिखने में समर्थ है। कर्म लेखा रखने में समर्थपत्र देव चित्रगुप्त के कर-कमलों की शोभा है। समस्त देहों (कायाओं) में सिथत, तन में छिपा (गुप्त) तत्व, जिससे देह का सच्चा स्वरूप (चित्र) ज्ञात हो सके वही चित्रगुप्त है। सचराचर के किसी भी देह में गुप्त चित्र (देही) ही चित्रगुप्त है। चित्रगुप्त सृष्टि कर्त्ता ब्रह्मा है जिसका अंश हर सचराचर में है। पुराणो के पहले के सूत्र ग्रंथो में “चित्रगुप्त” का उल्लेख है। “कायस्थ” शब्द पुराणेतर काल में प्रचलित हुआ है। चित्रगुप्त से कायस्थ की यात्रा अवयक्त से व्यक्त की यात्रा है। चित्रगुप्तम, प्रणम्यादावात्मानं सर्वदेहीनाम। (सब देहधारियों में आत्मा के रूप में विधमान चित्रगुप्त को प्रमाण। कायस्थ का जन्म यर्थाथ के अन्वेषण हेतु ही हुआ है।) प्राण के साथ प्राणदाता और प्राणहर्ता का संबंध, सम्य और वैषम्य आदि काल से चिन्तन, मनन, पठन, पाठन और प्रवण-कथन का विषय रहा है। हर युग में नचिकेता के माध्यम से ब्रह्रा जिज्ञासा जैसे प्रश्न पूछे और बूझे जाते रहे हैं। कायस्थो∙पि न कायस्थ कायस्थो∙पि न जायते। ‘कायस्थो∙पि न लिप्त: स्यात कायस्थो∙पि न बाध्यते’ (उत्तरगीता, अध्याय 1 श्लोक 28) काया में सिथत होते हुए भी न होना, काया उत्पन्न होते हुए भी न होना, सुख-दुख भोगते हुए भी उनमें न बंधना, पुण्य-पाप करते हुए भी उनमें लीन न होना, शरीर में रहते हुए भी बाध्य न होना ही कायस्थ का लक्षण है। व्यासमाला के प्रथम परिहास के प्रथम श्लोक में व्यासदास (क्षेमेन्द्र) भी कायस्थ को सर्वेश्वर, देवेश्वर, परमेश्वर ही वर्णित करता है। यैनेदं स्वेच्छया सर्व भायया मोहितं जगत। जिसने अपनी इच्छा से अपनी माया के द्वारा जगत को मोहित किया है वह विजय को भी जीतने वाला, श्री (लक्ष्मी) का स्वामी कायस्थ ही परमेश्वर है। चित्रगुप्त के विविध रुप अव्यक्त ब्रह्रा (चित्रगुप्त) के व्यक्त रुप कायस्थ का मूल भी चित्रगुप्त नाम से ही वर्णित है। अव्यक्त के व्यक्त होने पर आध्यातिमक (सूर्यकन्या) तथा भौतिक शकित (नागकन्या) का उससे संयुक्त होना ही देव चित्रगुप्त की विवाह कथा है। व्यक्त होने के बाद वृतित और प्रवृतित, कर्म और प्रभाव के अनुसार वर्णन किया जाना स्वाभाविक है। ‘बौधायन धर्मसूत्र’ (बिबिलयोधेका संस्कृतम्हैसुर, संख्या 34) पृष्ठ 13, खण्ड 25 या ‘स्मृतीनां समुच्चय (आनंदाश्रम पूना) में बौधायन स्मृति पृ0 455, प्रश्न 2, अध्याय 5, सूत्र 140 में ‘ऊ चित्रगुप्तम तर्पमामि’ तथा ‘कातीय तर्पण सूत्र’ में – यमांश्चैके-यमायधर्मराजाय मृतयवे चान्तकाय च। यम, धर्मराज, मृत्यु, अन्तक, वैवस्वत, काल, सर्वभूतों का क्षय करने वाले, औदुम्बर, चित्र, चित्रगुप्त, एकमेव, आजन्म किये पापों को तत्क्षण नष्ट कर सकने में सक्षम, नील वर्ण आदि विशेषण चित्रगुप्त के परमप्रतापी स्वरूप का बखान करते हैं। पुणयात्मों के लिए वे कल्याणकारी और पापियों के लिए कालस्वरूप है। कल्याणमयी सौम्या दुर्गा और रौद्रा महाकाली की ही तरह चित्रगुप्त की भी मांगलिक सातिवक तथा अमांगलिक-तामसिक चित्र, विग्रह व वर्णन उपलब्ध है। रहस्यों तथा देवालियों में मांगलिक चित्र व मूर्तियों की ही स्थापना अभीष्ट है। आश्वलायनीय गृह परिशिष्ट (बिबिलयोथेक इंडिका, कलकत्ता) में अपीच्य वेषधरं – चित्रगुप्तवाहयामि।। (24-6) द्वारा मांगलिक रुप का ही आवाहन किया गया है। नैषधीय चरित में नल-दमयंती स्वंयर में यमराज के साथ चित्रगुप्त को उच्च गुणों वाले कायस्थ (मंत्री) के रुप में दर्शाया जाना आलौकिक स्वरुप के संसारीकरण तथा भावनानुसार वर्णन का उदाहरण है। इस रुप में उन्हें सत्यवादी (भविष्यपुराण, ब्राह्रापर्व 1923) दयालु-सौम्य, सर्वदर्शी, समदर्शी, मध्यस्थ, निष्पक्ष (पध पुराण, भूमिखंड 684), उत्तराखण्ड (2299) बताया गया है। इंडियन एंटीक्केरी 13165 में वे शाचं (विशुद्वतात्मा) जितक्रोध, उपलब्ध, सत्यवादी, सर्वशास्त्र विशारद हैं। 12 वीं सदी के सर्वोच्च दार्शनिक ग्रंथ श्रीहर्ष विरचित ‘नैषधीय चरित’ में सर्ग 14, श्लोक 66 में ‘दृग्गोचरो∙भूदथ चित्रगुप्त: कायस्थ उच्चैगुण एतदीव’ में चित्रगुप्त को श्रेष्ठ गुणयुक्त बताया गया है। कायस्थ श्रेष्ठता के प्रतीक चित्रगुप्त वंशज कायस्थ अपने आदिदेव परात्पर ब्रह्रा के व्यक्तरुप चित्रगुप्त के गुण-कर्मानुरुप आचरण कर समाज में पूज्य व मान्य हुए। पुराणेतर काल में चित्रगुप्त को कायस्थों के सामाजिक स्थान के अनुसार वर्णित किया गया। कायस्थों को प्रशासनिक अभिकरणों औषधीय ज्ञान, सैन्य विभाग व राजस्व प्रबंधन का पर्याय माना गया। विष्णु धर्मसूत्र अध्याय 7 गधांश 3 में ‘तनिनयुक्त कायस्थ’ अर्थात उसके (राजा) द्वारा नियुक्त कायस्थ (मंत्री, राजलेखक) वर्णित है। याज्ञवल्क्य स्मृति (1336) में चौर-तस्कर दुवृत महासाहासिकादिभि:। चोर-तस्कर आदि बुरी वृतितवालों का महान साहस से दमन करने वाले, प्रजा रक्षक, पीडि़तों को मान देने वाले रुप में कायस्थों का वर्णन है। एपिग्राफिका इंडिका जिल्द 15 पृष्ठ 130 काश्मीरिक क्षेमेन्द्र (11वीं सदी), राजतरंगिणी (12 वीं सदी), श्रीवट (15वीं सदी), प्राज्यभटट (16वीं सदी) में कायस्थ का पर्याय नियोगी, महत्तम, कराविक, कार्यस्थ, कार्याधिकृत, अधिकारस्थ आदि है। क्षेमेन्द्र कृत वर्णमाला में सर्वोच्च ध्येय, गृहकल्याधिपति, गृहकृत्य महत्तम (गृहमंत्री), दीवानी (ब्पअपस), फौजदारी (ब्तपउपदंस), सैन्य (डपसपजंतल), धर्म (त्मसपहपवद), न्याय (श्रनेजपबम), दंडविधान, आदि विभागों के सर्वोच्च पदाधिकारी व स्वामी रुप में परिपालक (प्रांतीय शासक), लेखकोपाध्याय (कार्यालय अधीक्षक) गणक (आय-व्यय समीक्षक), गज्जदिविर (कोषाध्यक्ष) नियोगी (तहसीलदार), आस्थान दिविर (न्यायालय लेखक मुंशी), ग्राम दिविर (पटवारी), राजस्थानाधिकारी (प्रधान न्यायाधीश), अर्थनायक (संपतित अधीक्षक) पटटोपाध्याय (अभिलेख पंजीयक) दीवान, प्रधान, रायजादा, मुख्तार, बख्शी, लाला, निगम, वैध, शिक्षक, वर्मा (रक्षा करने वाला) शब्दों का प्रयोग कायस्थों के लिए हुआ है। कायस्थ अर्थात श्रेष्ठता अभिजात्यता व विद्वता वैदिक काल में परात्पर ब्रह्रा चित्रगुप्त, पुराणेतर काल में कायस्थ तथा कालान्तर में विभिन्न पदों के स्वामी के रुप में अपने कार्य में श्रेष्ठता व दक्षता का पर्याय ही कायस्थ थे। ‘कार्ये सिथत: स: कार्यस्थ’ जो कार्य में सिथत हो, इतना लीन हो कि वह स्वयं ही कार्य का पर्याय बन जाए – वही कार्यस्थ (कायस्थ है)। सरस्वती व लक्ष्मी का मेल कायस्थ ही कर पाए। वास्तव में श्री उनकी चेटी होकर उन्हीं श्रीवास्तव बना गर्इ। अलौकिक ज्ञान-ध्यान को लौकिक पुरुषार्थ-पराक्रम से देश-समाज कल्याण में प्रयुक्त करने वाले कायस्थों में श्रेष्ठता, अभिजात्यता, विद्वता, वीरता, उदारता, सहिष्णुता तथा सामंजस्यता के गुण अभिन्न रुप में रहे। कायस्थों ने आयुर्विज्ञान, शिक्षा, सैन्य, धर्म आदि क्षेत्रों में निपुणता प्राप्त की। श्रुति-स्मृति के युग में बढ़ती ज्ञान राशि के दुरुपयोग से उपजी व्यवस्था व कार्यविभाजन से अयोग्यों के पदलाभ की दशा में लेखनि, लिपि, मसि तथा पत्र का अविष्कार कर कायस्थ (चित्रगुप्त) ने ज्ञान-विज्ञान को लौकिक जनकल्याण का पथ दिखाया। आर्य-अनार्य, देव-नाग आदि संस्कृतियों के समिमलन का श्रेय भी कायस्थों को ही है। सत्ता का जनकल्याण के लिए उपयोग करने वाले कायस्थ क्रमश: सत्ता पद मे पद का गौरव व कर्तव्य भूलकर पथभ्रष्ट व बदनाम भी हुए। कायस्थों से द्वेष करने वाले जन्मना श्रेष्छता के हामी विप्र वर्ग ने रचित साहित्य में उन्हें दूषित चित्रित किया किन्तु इस सत्य को मिटाया नहीं जा सकता कि विश्व में श्रेष्ठतम मूल्यों को आत्मसात करने वाली भारतीय संस्कृति कायस्थों द्वारा सृजित और विकसित है। स्वामी विवकानंद ने कहा भी है कि भारतीय संस्कृति से कायस्थों का योगदान निकाल दिया जाये तो शेष कुछ भी नहीं बचेगा। जातिवाद श्रेष्ठ और वरेण्य कायस्थों ने जन्मना वंश परंपरा के स्थान पर जाति प्रथा की स्थापना की। जाति अर्थात वर्ग या श्रेणी विशेष। सृषिट पूर्व का एकत्व सृषिट आरंभ होते ही विविधत्व में बदलता है। विविधता से वर्ग सभ्यता जन्मती है। विविधता से ही जाति के जातक शकितशाली बनते हैं। विविधता का लोप ही जाति का विनाश है। जाति का मूल अर्थ था – प्रत्येक व्यकित की अपनी प्रकृति को, अपने विशेषत्व को प्रकाशित करने की स्वतंत्रता। जातियों में खान-पान व विवाह संबंध भी मान्य थे। भारत के पतन का भी मूल कारण भी कायस्थों का निर्बल होना, वंशवादी विप्रवर्ग का हावी होना तथा जाति सम्बन्धी उदारता नष्ट होकर संकीर्ण साम्प्रदायिकता, कटटर धर्मान्धता तथा उपजाति आदि का प्रभाव था। रुढ वर्ण विभाजन यथार्थ में जाति नहीं अपितु जातीय प्रगति में रुकावट है। भारतीय मनीष के श्रेष्ठतम सांस्कृतिक दूत स्वामी विवेकानंद के शब्दों में ‘जाति प्रथा उठा देने से ही भारत का पतन हुआ है। प्रत्येक विशेषाधिकार प्राप्त सम्प्रदाय (ब्राह्राण वर्ग धार्मिक संदर्भ में, आरक्षित वर्ग सामाजिक संदर्भ में) जाति का धोतक है। जाति को स्वतंत्रता दो। जाति की राह से हर रोड़ा हटा दो। बस हमारा उत्थान हो जाएगा। — प्रत्येक हिन्दु जानता है कि किसी बच्चे (जातक) के जन्म लेते ही ज्योतिषी उसके जाति निर्वाचन की चेष्ठा (कुंडली नक्षत्र आदि द्वारा) करते हैं। वही असली जाति है – व्यकित का व्यकितत्व ज्योतिष इसे स्वीकार करता है। हम तभी उठ सकते हैं जब जाति को पूरी स्वतंत्रता दें। याद रखें इसका अर्थ न वैषम्य है, न विशेषाधिकार। कायस्थ अर्थात जाति कायस्थ अर्थात अपनी काया से इसी तरह सिथत होना कि हर काया में सिथत (व्याप्त) हो सकें। तभी आप समस्त मानव जाति में व्याप्त होकर ‘वसुदैव कुटुम्बकम’ या ‘विश्वैक नीडम’ के आदर्श को जीवन्त कर विश्वमानव ‘कार्यस्थ’ बन सकेंगे। इस अर्थ में कायस्थ जाति ही सच्ची जीवन पद्वति है वह धर्मान्धता, कटटरता या संप्रदायिकता नहीं है। आइये उपवर्ग, उपजाति, भाषा, प्रदेश या उपासना पद्वति की दीवारें तोड़कर जातिवादी बनें। भगवान चित्रगुप्त केवल वंशजों के नहीं सचराचर के भाग्य देवता और कर्म देवता हैं। उनका पूजन सब करें – तभी वंशजों का गौरव गान, योग्यता का सम्मान और जाति का उत्थान होगा। — संचालक चित्रांशीय विवाह संसथान |
कायस्थ जाति का वर्ण क्षत्रिय है |
वर्ण व्यवस्था के अनुसार हिन्दुओं को ब्राह्राण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चार वर्णों में विभाजित किया गया है। कायस्थ जाति, जो कि वास्तव में क्षत्रिय वर्ण में आती है, पर उस समय प्रश्न चिन्ह लग गया जब कलकत्ता हार्इ कोर्ट ने एक मुकदमे में श्री श्यामाचरण सरकार द्वारा लिखित पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर यह घोषित कर दिया कि बंगाल के कायस्थ शूद्र हैं, क्योंकि वह अपना कुल नाम ‘वर्मा’ के स्थान पर ‘दास’ लिखते हैं और उनके यहा उपनयन संस्कार भी नहीं होता है। उक्त मुकदमें में न तो कोर्इ जाच की गर्इ और न इस पर विचार ही किया गया बलिक उपरोक्त पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ के आधार पर अपने निर्णय को अनितम रुप से सही माना गया। द्वितीय अपील, र्इश्वरी प्रसाद बनाम राय हरिप्रसाद, में पटना हार्इ कोर्ट ने इस सम्बन्ध में पर्याप्त जांच पड़ताल करने, उपनिषदों व धार्मिक पुस्तकों तथा उच्चकोटि के लेखकों की पुस्तकों का गहन अध्ययन करने तथा बनारस के विद्वान ब्राह्राण से विचार विमर्श करने के उपरान्त यह निर्णय दिया कि कायस्थ जाति का वर्ण क्षत्रिय है। उक्त द्वितीय अपील पर पटना हार्इ कोर्ट ने इस बिन्दु पर निम्नलिखित विवेचना की है :- ‘व्यवस्था दर्पण’ में वर्णित दृषिटकोण, जिसके आधार पर कलकत्ता हार्इ कोर्ट ने निर्णय दिया था, जिसको प्रमुख हिन्दु वकीलों ने स्वीकार नहीं किया। श्री गोपाल चन्द्र शास्त्री ने हिन्दू ला पर लिखित अपनी पुस्तक (1924) में पृष्ठ सं0 143 पर कहा है कि यह हिन्दू जाति के लिए आश्चर्यजनक है। श्री सर्वाधिकारी ने अपनी पुस्तक ज्ीम च्तपदबपचसमे व भिपदकन स्ंू व पिदीमतपजंदबम ;1923द्ध के पृष्ठ सं0 835 पर कहा है कि यह निर्णय सही नहीं है और इसने बंगाल की समस्त कायस्थ जाति को कठोर आघात पहुचाया है। इसी प्रकार के विचार श्री जोगेन्द्र चन्द्र घोष ने अपनी पुस्तक श्ज्ीम च्तपदबपचसमे व भिपदकन स्ंू ;1917द्धश् के पृष्ठ संख्या 1006 पर व्यक्त किये हैं। इन वकीलों ने इस बात को स्वीकार नहीं किया है कि कायस्थ जोकि सर्वमान्य रुप से क्षत्रिय थे, अब शूद्र बन गये हैं और न इन बातों को स्वीकार किया है कि यदि यह सच भी हो कि कायस्थों ने यज्ञोपवीत धारण करना छोड़ दिया है तथा वे अपना कुल नाम ‘दास’ लिखते हैं, तो भी कोर्इ कारण नहीं है कि उनकी जाति की अवनति हो जावे। इन बिन्दु पर श्री सर्वाधिकारी ने अपनी विद्वतापूर्ण पुस्तक श्ज्ीम संहवतम स्ंू ज्मबजनतमे व 18ि80श् के पृष्ठ सं0 830 (1923 संस्करण) में लिखा है कि :- ‘यज्ञोपवीत धारण करना’ जो कि द्विज श्रेणी के लोगों का सर्वविदित चिन्ह है, भी इस कष्टदायक प्रश्न की असनिदग्ध परीक्षा नहीं है। बहुत से ऐसे ठाकुर तथा बनिये पाये जाते हैं जो कि द्विज श्रेणी के होने पर भी यज्ञोपवीत धारण नहीं करते हैंं। किसी व्यकित की जाति निशिचत करने के लिए केवल एक ही सुरक्षित उपाय है कि उसके सामाजिक आचार-विचार तथा रीति-रिवाज को देखा जाय। विधवाओं का पुनर्विवाह, समान अधिकार, वैध तथा अवैध पुत्रों के विशेष अधिकार तथा इसी प्रकार के अन्य रीति-रिवाज ऐसे चिन्ह हैं जिनसे शूद्र पहचाने जा सकते हैं। विद्वान लेखक ने अगले पृष्ठों में 831 से 835 तक इस प्रश्न को निकट से जाचा तथा श्रुतियों तथा पुराणों, मातहत अदालतों के निर्णयों, प्रमुख गजेटियरों, सदर दीवानी अदालत, पंडितों के दर्पणों आदि के मूल पाठों जिनके द्वारा बिहार तथा उत्तर पशिचम प्रान्तों के कायस्थ नियमित होते हैं, के सन्दर्भ में जाच की तथा निशिचत किया कि कायस्थ द्विज की श्रेणी में आते हैं और वे क्षत्रिय हैं। कायस्थ किसी भी अर्थ से शूद्र नहीं हैं। वह गम्भीरता से प्रश्न करते हैं कि यदि कोर्इ ऊची जाति का व्यकित अपने कुछ रीति-रिवाजों को छोड़ दे ंतो क्या वह स्थार्इ रुप से अपनी जाति से नीचे गिर जावेगा, और यदि वह अपने पूर्व रिवाजों को पुन: अपना लें, जैसा कि वर्तमान वर्षों में कुछ बंगाली कायस्थों ने किया भी है, तो उसकी जाति की क्या सिथति होगी। कलकत्ता केस के बारे में वो कहते हैं कि न तो उक्त मुकदमें में बहस की गर्इ और न उसे तय ही किया गया। केवल ‘व्यवस्था दर्पण’ में श्री श्यामाचरण सरकार की राय को इस बिन्दु पर निर्णायक माना गया था। वह कहते हैं कि बंगाल के कायस्थ शूद्र नहीं हो सकते। एक कायस्थ की एक शूद्र स़्त्री के साथ विवाह करने पर कलकत्ता उच्च न्यायालय ने विश्वास किया है जबकि उक्त केस ने दोनों ही पक्ष मूल रुप से शूद्र जाति के विभिन्न वर्गों से सम्बनिधत थे। इन उदाहरणों को ऐसे कायस्थों के सम्बन्ध में, जो कि मूल से क्षत्रिय हैं, प्रयुक्त नहीं करना चाहिए यधपि वे अवनति पाये हुए क्षत्रिय हों तो भी। एक व्यकित जो द्विज श्रेणी से सम्बनिधत हो, अपने उन अधिकारों से वंचित नहीं हो सकता जो उसे उक्त श्रेणी द्वारा प्राप्त हैं चाहें वह सामाजिक रुप से निम्न दृषिट से देखा जाता हो। जहां तक उत्तर पशिचमी प्रान्तों तथा बम्बर्इ के कायस्थों का प्रश्न है जिसमें बिहार के कायस्थ भी समिमलित हैं, श्री सर्वाधिकारी कहते हैं कि वह उन्हीं नियमों से शासित होने चाहिए जिनसे कि द्विज श्रेणी के लोग शासित होते हैं। श्री गोलायचन्द्र सरकार का भी गोद लेने तथा हिन्दू ला सम्बन्धी पुराणों, याज्ञवलक्य तथा मित्ताक्षर के मूल पाठों की भी निकट से जांच की। उनका विचार है कि कायस्थ क्षत्रिय हैं तथा रीति-रिवाजों के बिना देख हुए ऊची जाति की नीची जाति में अवनति नहीं की जा सकती, जिससे कि उसके नागरिक अधिकार प्रभावित हों। वह कहते हैं कि किसी भी व्यकित की जाति वंश परम्परा से नहीं होती थी बलिक मनु स्मृति के सूर पाठ के अनुसार के अनुसार जाति उसके उध्यवसाय तथा आचार-विचार पर होती थी। परन्तु समय व्यतीत होने पर यह मामला वंश परम्परा का बन गया और गुण दोषों का आधार छोड़ कर लड़का अपने पिता की जाति पाने लगा। रीति रिवाजों के छोड़ने पर कोर्इ भी द्विज श्रेणी का व्यकित अपनी जाति से अवनत नहीं हुआ। यदि ऐसा होता तो हिन्दुओं में शूद्र के अतिरिक्त कोर्इ जाति नहीं होती क्योंकि द्विज श्रेणी के बहुत ही कम व्यकित ऐसे हैं जो कह सकें कि उन्होंने तथा उनके पूर्वजों ने अपनी जाति सम्बन्धी समस्त कर्तव्यों का पालन किया है। फिर द्विज श्रेणी के कायस्थ ही जाति में अवनत होकर रुढि़वादिता के कारण शूद्र कैसे हो सकते हैं, वह आगे कहते हैं कि इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि समस्त बातों में कायस्थ लोग क्षत्रियों के समस्त आचार विचारों का पालन करते हैं। ‘चित्रगुप्त’ को धर्मराज के निकट जीवों के अच्छे व बुरे कर्मों का लेखा जोखा लिखने के लिए रखा गया। उनमें आलोकिक बुद्विमता थी और वो अगिन तथा देवताओं को चढ़ार्इ जाने वाली बलि के भाग प्राप्त करने के अधिकारी थे। इसी कारण से द्विज श्रेणी के लोग उन्हें अपने भोजन में से भोग लगाते हैं। ‘धर्मराज चित्रगुप्त: ‘शब्द कल्पद्रुम’ में यम संहिता की ंव्याख्या में कहा गया है, ‘ब्रह्राकाय समुदभूतो’। ‘ब्रह्राकाय समुदभूतो ‘कि कायस्थ जो ब्रह्रााजी की काया से प्रकट हुए हैं उनकी ब्राह्राण के समान पदवी है परन्तु कलि-युग में उनके धार्मिक रीति रिवाज तथा कर्तव्य क्षत्रियों के समान होंगे।’ |
भगवान चित्रगुप्त का श्याम वर्ण |
भारतीय देव भावना प्राचीन है। ऋग्वेद के अगिन सूक्त से लेकर इन्द्र एवं विष्णु की प्रतिष्ठा की लम्बी यात्रा विद्वानों के शोघ का विषय रही है। अपने देवी देवताओं के रुप, आकार, वर्णादि के विचार एवं प्रतिष्ठा के निर्मित्त भारतीय मनीषा ने वैज्ञानिक और दार्शनिक रुपों में गहन मन्थन किया है। भगवान शिव का हिमधवल होना, दुगर्ाा का दशभुजी होना अथवा ब्रह्राा का चतुमर्ुख होना भारतीय चिन्ता की अनोखी उदभावना है। इसी क्रम में गोरांग एवं श्यामांग देवी देवताओं की भी परिकल्पना है। काली, राम, कृष्ण और चित्रगुप्त को छोड़ सभी देवी देवता गौर ही वर्णित किए गए हैं। इस सम्बन्ध में कुछ विद्वानों ने अनुदार होकर यह कह डाला कि यह अनार्य प्रभाव है। भगवान शिव के सम्बन्ध में भी यही धारणा विद्वानों में है। गौर या श्याम होना एक दार्शनिक प्रतीक है जिसका मूल आदिम शकित भावना में निहित है। यह एक प्रतीक है। चित्रगुप्त का अर्थ ही है कि जिसका रुप (चित्र) गुप्त हो। अर्थात दृष्ट न हो। ब्रह्राा की काया से प्रकट होने के पीछे भी यही रहस्य है। चित्रहीनता की सिथति अन्धकार की ही होती है। अशेष होने के कारण काली या चित्रगुप्त का रंग न काला है न उजला। वह तो एक सत्ता मात्र है। एक ‘बीर्इग’ है जो सबके भीतर सिथत हैं। अन्धकार के रुप मं वह सभी रुपों को अपने भीतर समोये हुए सभी रुपों को मिटाकर एक तत्व के रुप में सत्ता मात्र ही अवशिष्ट रहता है। तांत्रिकों ने काली के विषय में विचार करते हुए इसे तिरस्करिणी विधा की संज्ञा दी है। अर्थात वह जो सभी वस्तुओं को आत्मसात कर अपने में छिपा लेती है। वहां काल आकर समाप्त हो जाता है। आत्मसात करने वाली वही है, जिसका रुप रात्रि के समान है। वह शून्यरुपा बन कर निवास करती है। चित्रगुप्त भगवान का श्यामवर्ण होना इसी तिरिस्कारिणी का धोतक है। यमाय, धर्मजाय, अनौकालाय आदि सबोध सम्बोधन पीछे यही भावना है। जीवन का अन्त और उदगम यही पाप-पुण्य का लेखा जोखा होता है। कला की चर्चा में सोलह कलाओं का उल्लेख होता है। प्रतिपदा से पूर्णिमा तक चन्द्रमा की पन्द्रह कलायें ही दृष्ट होती हैं। परन्तु इसके अतिरिक्त भी एक कला है जो सोलहवीं है और उसे उमाकला कहा जाता है। यह अमाकला अमृत रत्न उपयर्ुक्त पन्द्रह कलाएं कालस्पृष्ट है। अर्थात इनका घटना बढ़ना हो सकता है। ये कलाएं काल-राज्य में संक्रमण करती है। परन्तु अमा कला काम मुक्त है। अर्थात मा काली, जहां षकित के अक्षय स्त्रोत की कल्पना है वहीं चित्रगुप्त भी समस्त सृषिट की शकित को अपने भीतर समोए रहते हैं। चित्रगुप्त उसी कालातीत शकित प्रतीक हैं। दीपावली की कालीपूजा के पष्चात विषेष महत्वपूर्ण यमद्वितीया पूजा है। इस दिन सित्रया कालिख लगी हाडी और नागफनी जाति की कांटेदार पतितयों को लेकर पूजा करती हैं। यमराज को साक्षी रख अपने परिवार के सभी सदस्यों को मरने का शाप देती हैं। मृत्यु के विधान को कालिका बन कर स्वीकार करती हैं। पुन: जगदधात्री बन कर अपनी जिव्हा में कांटा गड़ा कर उन्हें जीने का आर्षीवाद देकर अकाल मृत्यु के प्रतीक हांडी को मूसल से चूरचूर कर डालती है। एक ओर घरों में यह पूजा सित्रयों द्वारा तथा भगवान चित्रगुप्त की पूजा पुरुषों के द्वारा की जाती है। तब चित्रगुप्त के आर्षीवाद से अकाल काल पर विजय की कामना की जाती है। भगवान राम और कृष्ण के श्याम रुपों के पीछे यही भावना है। राम और कृष्ण का अवतार अन्य अवतारों की भाति नहीं। ये अवतार अंषावतार थे। राम और कृष्ण पूर्णावतार ही नहीं, स्वंय ब्रह्राा ही हैं। ब्रह्रा कालातीत है। अत: उसका भी श्याम वर्ण ही होगा। राम और कृष्ण वर्ण की भी दार्षनिक व्याख्या है। (अवकाष प्राप्त यूनिवर्सिटी प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिन्दी विभाग, |
हिन्डौन के कायस्थ |
‘’ राजस्थान में हिन्डौन नामक स्थान है जहाँ कभी इन्डवन नामक वन था। इस हिन्डौन को एक कायस्थ ने आबाद किया था। हिन्डौन के कायस्थ गाँव करसोली (जो हिन्डौन से करीब 4 मील की दूरी पर है) के बिस्वेदार थे। ऐसी किवदंती है कि करसोली में एक झगड़ा हुआ जिसमें करसोली के तमाम कायस्थ मारे गये। एक कायस्थ बहादुरी के साथ लड़ा, उसका सिर शरीर से अलग होने पर भी लड़ते-लड़ते मरा जो बाद में हिन्डौन के कायस्थों का देतवला के रुप में गोरल बाबा के नाम से प्रसिद्ध हुआ जिसकी जात हिन्डौन के कायस्थों का गोत्र करसोलिया अब तक परम्परा चली आ रही है। करसौर्इ से एक कायस्थ स्त्री को जिसका पीहर दिल्ली था और जो गर्भवती थी कायस्थों के पुरोहित किसी प्रकार छिपाकर दिल्ली ले गये। वहीं जाकर उसके लड़का पैदा हुआ। उसका ननिहाल में पालन-पोषण हुआ। जब वह बड़ा हुआ तो अपनी अदभुत बुद्धि और वीरता के नाना रुप प्रदर्शन करने लगा। अकबर की रानी हीरादेर्इ अजमेर हज को गर्इ तो इस कायस्थ को भी अपने साथ ले गर्इ। रास्ते में हिन्डवन (जिसको कि आजकल हिन्डौन कहते हैं) में पड़ाव डाला। रात को एक शेर की आवाज आर्इ। ज्योतिषियों ने रानी से कहा कि जो आदमी इस समय इस शेर का शिकार करेगा उसकी सन्तान एक हजार वर्ष तक इसी प्रकार यहाँ पर इसी जगह राज्य करेगी। रानी के साथ जो अंगरक्षक आये थे वह सब शेर के शिकार को निकले। यह कायस्थ भी जो रानी के साथ आया था, शिकार के लिए गया। इसने शेर का शिकार किया और शेर के कान व पूछ काट कर अपने साथ सबूत के लिए रख लिए। सभी ने अपनी-अपनी डींग हाकी परन्तु जब इस कायस्थ ने अपना प्रमाण दिया तो सबकी बोलती बन्द हो गर्इ। यहाँ से अजमेर हज करके रानी वापस दिल्ली पहुँची। इस कायस्थ की मां अपने बेटे से कहा करती थी कि हम करसोली के रहने वाले हैं। जब अकबर को यह पता चला कि हिन्डवन मे जिसने शेर का शिकार किया है वह एक कायस्थ है जो उसके यहाँ नौकर है, तो अकबर ने उसको बुला कर पूछा ‘तुम क्या चाहते हो’ ? तो उसने उत्तर दिया कि जहाँपनाह यदि वास्तव में आप मेरे से खुश हैं तो मेरे लिए करसौली पर आक्रमण करने की इजाजत दी जाय। अकबर ने अपनी फौज इसके साथ भेजी और करसौली पर हमला बोल दिया। वह जीत गया और इस प्रकार इसको अपनी बिस्वेदारी वापिस मिली। इसने करसौली के बजाय हिन्डवन में अपने को आबाद किया। हिन्डवन का ही नाम हिन्डौन है। हिन्डौन के कायस्थों में हरदेव जी का मंदिर, बड़ी हवेली ठाकुर वाला कुआँ और हरदेव जी की बावड़ी जो वर्तमान हार्इस्कूल के पास है, स्थापित की। यहाँ के कायस्थ जयपुर, जोधपुर, उज्जैन, हैदराबाद, दिल्ली तथा गया बगैरा में मिलते हैं। यहा के एक कायस्थ हैदराबाद में हैं और उनको राजा का खिताब है। उनमें राजा मुरलीधर प्रसिद्ध हैं। आपके गुरु हिन्डौन में रघुनाथ जी के महन्त हैं। इनके परिवार वाले आजकल अमरीका में रहते हैं। यहाँ के एक कायस्थ श्री राम निवास जी माथुर जयपुर में म्यूनिस्पिल कमिश्नर हुये। आधुनिक सामाजिक क्षेत्र में कुन्जबिहारी लाल जी माथुर प्रसिद्ध हैं जिन्होंने सन 1951 में भरतपुर में अखिल राजस्थान कायस्थ सम्मेलन बुलाया था। |
हैदराबादी कायस्थ |
‘’हैदराबादी संस्कृति देश भर में प्रसिद्ध है। प्रमुख जाति होने के नाते कायस्थों का इसमें विशेष योगदान रहा। मुगल काल में अनेकों कायस्थ आसफजाही शासकों के साथ आकर यहा बस गये। आज भी यहा की धरती पर कायस्थों की अमिट छाप है। कायस्थ अपनी लेखनी प्रतिभा के कारण सदैव मान्य रहे तथा केन्द्र व राज्य सरकारों में उच्च पदों पर आसीन रहे। निजाम काल में उनको जागीर, मखता, मनसब और योमिया के खिताब मिले। सरफ-ए-खास में कायस्थों को प्रमुख पद मिले। राजा धरम करण तो निजाम के मंत्री थे। हैदराबाद में कायस्थों ने बड़ी संख्या में सरकारी सेवाओं के अतिरिक्त डाक्टरी, इंजीनियरी, वकालत तथा अन्य पेशे अपना लिए कुछ तो व्यवसाय तथा औधोगिक क्षेत्र में उतर चुके हैं। किन्तु हैदराबाद की राजनीति में कायस्थो का योगदान विशेष उल्लेखनीय नहीं रहा। निजाम सप्तम के समय में पं0 नरेन्द्र जी सक्सेना कायस्थ स्वतंत्रता प्राप्ति के लक्ष्य से तत्कालीन सरकार एवं रजाकारों के विरुद्ध संघर्ष हेतु प्रथम पंक्ति में रहे। वे सुप्रसिद्ध आर्यसमाजी थे। निजाम शासन से छुटकारा दिलाकर हैदराबाद में स्वतंत्र भारत का दर्शन कराने में उनका त्याग सदैव स्मरणीय रहेगा। कम्यूनिस्ट पार्टी के झंडे तले डा0 राज बहादुर गौड़ प्रकाश में आये और मजदूर वर्ग एवं दलितों की सेवा में समर्पित हो गये। हैदराबाद म्युन्सिपल कारपोरेशन के सदस्य द्वारका प्रसाद निगम चार मीनार क्षेत्र से जानी मानी हस्ती थे। शिव प्रसाद श्रीवास्तव हैदराबाद नगर महाराजगंज क्षेत्र से विधान सभा सदस्य निवार्चित हुये। मनोहर लाल सक्सेना एक प्रमुख वकील होने के साथ ही म्युन्सिपल काउन्सिलर भी थे। वे अपने सामाजिक कार्यों के लिये बहुचर्चित हुये। वर्तमान में वह आन्ध्र प्रदेश कायस्थ सभा के कानूनी सलाहाकार हैं। राजनीति में कायस्थ समाज की एकमात्र महिला शान्ता श्रीवास्तव तेलगू देशम पार्टी के लिये कार्यरत हैं। अधिवक्ताओं की श्रेणी में सतगुर प्रसाद सक्सेना, शीतल प्रसाद श्रीवास्तव, काली चरण अस्थाना, मनोहर प्रसाद माथुर, गुरुनाथ प्रसाद सक्सेना, योगेन्द्र नाथ निगम, राजेन्द्र प्रसाद भटनागर स्वत: ही स्मरण हो जाते हैं। नागेश्वरी प्रसाद भटनागर, गणेश प्रसाद भटनागर जसवन्त राज अस्थाना और रमर राज सक्सेना ने मजिस्ट्रेट तथा जज के पद को सुशोभित किया। प्रमुखत: साहित्यक प्रवृत्ति का होने के कारण कायस्थों ने अनेकों प्रमुख लेखकों तथा कवियों को जन्म दिया। राजा गिरधारी प्रसाद सक्सेना उफ बन्सी राजा, जिनका साहित्यक नाम ‘बांखी’ एक सुप्रसिद्व कवि थे। वह अपने महल बंसी राजा की डयोढ़ी में समय समय पर मुशायरे का आयोजन करते जिसमें निजाम राज्य के प्रधानमंत्री महाराजा सर किशन प्रसाद भी समिमलित होते और कविता पाठ करते थे। बहुत से कायस्थों ने चिकित्सा के क्षेत्र में न केवल भारत वरन विदेशों में भी ख्याति अर्जित की। आन्ध्र प्रदेश कायस्थ सभा के भूतपूर्व अध्यक्ष एक जाने माने शिशु रोग विशेषज्ञ डा0 हरीश चन्द्र माथुर विश्व स्वास्थय संगठन में काम करते हुये विश्व भर में प्रशंसा के पात्र बने। हैदराबाद के सु प्रसिद्ध प्राचीन घरानों यथा मालवाला भवन, बन्सी राजा की डयोढ़ी और फतेह मंजिल ने अपने प्रयत्नों द्वारा हैदराबादी संस्कृति का परितोषण किया। महाराज करन और राम करन ने व्यक्तिगत योगदान द्वारा माथुर कायस्थों का मस्तक ऊचा रखा। यदि सरकारी सेवा और प्रबन्ध तंत्र की ओर दर्ष्टिपात करें तो यहां भी कायस्थों का बहुत बड़ा योगदान दिखार्इ देगा। राय पृथ्वी राज सक्सेना (कृषि विभाग निर्देशक) धरम राज माथुर (म्युन्सिपल कमिश्नर) आनन्द कुमार माथुर (चीफ कन्जरवेटर आफ फारेस्ट) र्इश्वर राज माथुर (प्रमुख निर्देशक, सूचना विभाग, महाराष्ट्र), राम रज सक्सेना, पुष्प कुमार माथुर ( प्रिंसिपल चीफ कन्जरवेटर आफ फारेस्ट) और प्रताप बहादुर (चीफ कन्जरवेटर आफ फारेस्ट) प्रमुख पदों पर आसीन रहे। यह कहना भी समयोचित होगा कि हैदराबाद नगर के उपगुण्डा क्षेत्र में कण्डीकल द्वार के निकट एक चित्रगुप्त मंदिर है। इसका निर्माण एक श्रीवास्तव कायस्थ द्वारा कराया गया और प्रबन्धन एक अकायस्थ समिति कर रही है। अब समय है कि आन्ध्र प्रदेश कायस्थ सभा इसका प्रबन्ध अपने हाथों में लेने हेतु प्रयत्नशील हो। एक कायस्थ द्वारा निर्मित और प्रबंधित दूसरा मंदिर श्री एकनाथ महाराज का है। यह हैदराबाद नगर के चन्द्रयंगुहा में सिथत है। श्री तीर्थराज सक्सेना इस मंदिर के पैतृक ट्रस्टी हैं। इसका निर्माण महाराष्ट्रीय सन्त की स्मृति में हुआ। ‘सोशियल हिस्ट्री आफ ए इंडियन कास्ट-सब-कास्ट कायस्थ’ पर थीसिस लिखकर करेन ल्योनर्इ नामक अमरीकी महिला ने कैलीफोर्निया विश्वविधालय (अमरीका) से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की। यह हैदराबादी कायस्थों पर उनके द्वारा किये शोध पर आधारित थी। इसके लिये उसने बीसियों हैदराबादी कायस्थों से साक्षात्कार किया। इस शोघ पर आधारित उसकी पुस्तक सन 1978 में प्रकाशित हुर्इ तथा इसके मुखपृष्ट पर राजा गिरधारी प्रसाद सक्सेना उर्फ बन्सी राजा चित्र हैं। इसी प्रकार कायस्थों ने सभी क्षेत्रों में प्रमुखता प्राप्त की तथा अपनी जिम्मेदारियों का पूरी तरह से निर्वाह किया। उन्होंने न केवल हैदराबाद नगर के निर्माण में विशेष योगदान किया वरन हैदराबादी संस्कृति और समाज में अपनी अमिट छाप भी छोड़ी है। आशा है कि कायस्थों की भावी पीढ़ी पूर्वजों से प्राप्त सांस्कृतिक मूल्यों को नष्ट नहीं होने देगी, तथा इनमें सुधार करते हुये हैदराबादी संस्कृति में कायस्थों के स्वरुप को बढ़ावा देगी। |
मद्रासी कायस्थ |
‘’Cited in the History of Kayastha Pages 126 to 128 by Shri Gopi Nath Saxena, Bareilly. मद्रास में भी एक वर्ग चित्रगुप्त वंश का है जैसा कि निम्नलिखित ग्रन्थों में दिया है – ”गरुण पुराण” ”आदित्य पुराणम” अध्याय 5, ”धनाकर स्मृति”। ‘Havya Kavya Vithigal’ by Mr. S. M. Manikka Pillai ‘Sree Karuneega Puranam’ by Mr. Vasudeva Pillai में श्री चित्रगुप्त जी के तीन स्त्रियों का भी विवरण है। प्रभावती देवी पुत्री मनु ब्राह्राण, दूसरी स्त्री नीलावती देवी पुत्री माया ब्राह्राण तीसरी पत्नी कारणिकी देवी पुत्री विश्व ब्राह्राण। Ethonology of the Karmams by U. Sundramurthy Pillai, the Townpresr Conjeeveram, 1927 इस वर्ग के नाम ये हैं मूदालियर, नायडू, पिल्लै, नायर, राजू, मेनन, राव, रेडडी, करनाम इत्यादि। महामद्रास आराकाटा, बंगलौर, आन्ध्र प्रदेश, मैसूर एवं कन्या कुमारी तक पाये जाते हैं। मद्रास और विलौर में श्री चित्रगुप्त जी का मंदिर भी है। इन वर्गों के लोग आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स के कर्इ अधिवेशन (मेरठ सन 1927 एवं इलाहाबाद सन 1939 र्इ0) में सम्मलित हुए। |
बंगाली कायस्थ समाज |
‘’ शास्त्रों की यह बात है कि भगवान चित्रगुप्त जी के 12 पुत्रों में से एक सुचारु नाम के गौड़-बंगाल देश में आकर बसे और उनके वंशज गौड़ ब्राह्राण कायस्थ कहलाये। इसीलिए प0 श्यामाचरण सरकार विधाभूषण ने जो गत शताब्दी के एक प्रसिद्ध ब्राह्राण पंडित थे, हिन्दू कानून पर अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘व्यवस्था दर्पण’ तीसरा संस्करण, पृष्ठ 332-370 में लिखा है कि पूर्व कालीन बंगाली कायस्थ सुचारु के वंशज थे। इसके पश्चात आदि सूर के राज्य काल में जैसा कि पुरानी वंश वृक्षों की पुस्तक कलाओं में लिखा है उनके दरबार में कान्य-कुब्ज के राजा ने परस्पर संधि के उपलक्ष्य में पांच वीर एवं विद्वान कायस्थों को भेजा था। उनके नाम मकरन्द, दशरथ, विराट, पुरुषोत्तम तथा कालिदास थे। इससे ही समकालीन घोष वंश, मौदगल्य गोत्र एवं भारद्वाज गोत्र वाले दत्त वंश और विश्वामित्र गोत्र वाले मित्र वंश का प्रसार हुआ। गौड़ के राजा ने उनका स्वागत और उन्हें सम्मानित किया। जब यह सूचना कान्यकुब्ज लोगों को मिली तो तीन और कायस्थ, जिनके नाम देवदत्त (नाग), चन्द्रचूड़ (दास) और चन्द्र भानु (नाथ) थे, गौड़ देश में आये और कुछ ही समय पश्चात 19 कायस्थ और आये। कारिकाओं से मालूम होता है कि ये सब अपने पूरे कुटुम्बों सहित आदि सूर के राज्यकाल में ही आये और उनका सम्मान पूर्वक स्वागत किया गया। उन्हें रहने तथा निर्वाह आदि निर्मित 27 गॉंव दिये गये। इस समय बंगाल में बौद्ध धर्म था और यही कारण था कि बंगाल में सनातन धर्म को पुन: स्थापित करने के लिये आदि सूर ने कान्यकुब्ज के राजा वीर सिंह को एक पत्र में उच्च कुल के द्विज सनातनी आर्य पुरुषों को गौड़ देश में भेजने को लिखा।। ‘सृजित सौगात बृन्दे बडगराज्ये मदाये-द्विज कुल वरजात: सानुकम्पा: प्रयातु।’एक बहुत पुरानी कारिका में लिखा है कि पहले वे पछिमी राढ़ में बसे और मछली खाने के विरुद्ध थे। पीछे से राजा बंगाल के कहने से कुछ वंश पूर्वी बंगाल से आये और उन्होंने बंगज समाज की स्थापना की। ‘पुरात पशिचमराढ़े मत्स्यत्यागी महा कुल:। ततो बल्लासेनेव मध्या बंगे आवसित:।।’ आदि सूर के लगभग चार शताब्दियों के बाद बल्लाल सेन के शासन काल में बंगाल के कायस्थों की चार शाखायें बंगज, दक्षिण राढ़ीय, उत्तर राढ़ीय और बारेन्द्र नाम से हो गर्इ। इसमें दक्षिण राढ़ीय और बंगज कायस्थ एक ही पूर्वजों के वंशज हैं। बंगाल के कायस्थों की अधिक संख्या उन्हीं दोनों शाखाओं में से है। उत्तर राढ़ीय और वारेन्द्र शाखायें छोटी हैं, जिनमें क्रमश: केवल 5 और 7 मूल कुटुम्ब है। उत्तर राढ़ीय-घोष, सिंह, मित्र, दत्त तथा देव कुटुम्बों के उदगम तथा गोत्र बंगज तथा दक्षिण राढ़ीय समाज के कुटुम्बों से हैं। वारेन्द्र कारिकाओं से पता चला है कि तीन विद्वान कायस्थ भृगु, गुरहर और नन्द दास जो वारेन्द्र, नदी, चकी तथा दास बंशों के मूल पुरुष हैं, कान्यकुब्ज से गौड़ देश में बल्लाल सेन के शासन काल में आये और राढ़ीय कायस्थों के नाम, दत्त, देव तथा सिंह वंशों से मिल जुलकर उन्होंने वारेन्द्र देश अर्थात उत्तर बंगाल में वारेन्द्र समाज बनाया। शताब्दियों तक एक दूसरे से पृथक रहेने के पश्चात अब इन भिन्न भिन्न शाखाओं के कायस्थों में विशेषकर बंग देशीय कायस्थ सभा के प्रयत्नों से अन्र्तवर्गीय विवाह होने लगे है। बंगाल का कायस्थ समाज इस प्रकार बना है। बंगाल मुख्यत: कायस्थों का देश है और इस पर शताब्दियों तक कायस्थ राज्य करते रहे हैं और वे यहा सर्वश्रेष्ठ गुण सम्पन्न ब्राह्राणों तथा कायस्थों को लाये जिनकी संस्कृति और सभ्यता का भारी प्रभाव पड़ा। समयानुसार पालवंशों की अवनति हुर्इ और विजय सेन वंश (कायस्थ) के संस्थापक ने गौड़ देश की राजगद्दी पर अपना आसन जमाया तथा भोज विक्रमपुर का राजा बना। ये दोनों वंश सनातन धर्म के अनुयायी थे। इन्होंने प्राचीन वैदिक धर्म को पुर्नजीवित किया। लोगों ने त्यागा हुआ वैदिक धर्म सूत्र (यज्ञोपवीत) आदि पुन: धारण कर लिया। फिर विजयसेन के पुत्र बल्लाल ने पूरा बंगाल जीत लिया और ब्राह्राणों तथा कायस्थों के (दक्षिण राढ़ीय एवं बंडगज) कुलीन धर्म की स्थापना की। जिसका आधार 9 गुणों पर था, जो सनातन धर्म के अनुयायिओं में अवश्य होना चाहिए। ‘नौ गुण परम पुनीत तुम्हारे।’ मानस में कहा है। नौ गुण – – ‘आचारो विनयो विधा प्रतिष्ठा तीर्थदर्शनम। निष्ठावृतितस्तपो दानं नवधा कुल लक्षणम।।’इस प्रकार कुलीन तथा मौलिक के भेद की नींव पड़ी। मौलिक का अभिप्राय उससे है जिसका मूल अर्थात उदगम श्रेष्ठ हो। मौलिक उतने ही श्रेष्ठ कायस्थ हैं जितने कुलीन। भेद केवल इतना ही है कि मौलिक कायस्थों को अब भी कुछ अंशों में वह सामाजिक सम्मान प्राप्त है जो बल्लाल के समय उनके पूर्वजों को प्रदान किया गया था। भिन्न-भिन्न बंग नामों की उत्पत्ति – बिहार-संयुक्त प्रान्त एवं बुंदेलखण्ड के कायस्थों की भांति बंगाल के कायस्थ अपने नामों के पश्चात माथुर, श्रीवास्तव, भटनागर, सक्सेना, अस्थाना, कुलश्रेष्ठ आदि शब्द नहीं लिखते। बंगाली कायस्थों के अनेक वंश-नाम उनके पूर्वजों के नाम पर हैं। पाँच प्रसिद्व कायस्थ-मकरन्द, दशरथ, विराट, पुरुषोत्तम तथा कालिदास, जो आदि सूर के दरबार में आये थे। घोष, बसु, गुह (अगिन) दत्त तथा मित्र उन्हीं विख्यात पूर्वजों के वंशज है। इसलिये उनके वंशजों को एक दूसरे से पहचानने के लिए उनके नामों के पश्चात वही शब्द (बंगनाम) लगाये जाते हैं। प्राचीन काल में लोगों के नाम केवल एक शब्द के होते थे जैसे – दक्ष, मनु, भृगु, यदु, कृष्ण, राम आदि। फिर लगभग 2000 वर्ष पूर्व से नाम कुछ बड़े होने लगे और संयुक्त शब्द लगाकर बोले जाने लगे जैसे देवदत्त, अगिनमित्र, धर्मदास आदि। उस समय संयुक्त नाम के अनितम शब्द को कर्इ पीढि़यों तक बनाये रखने की प्रथा थी जैसे धर्मदास के वंशजों के नाम क्रम से दुर्गादास विष्णुदास आदि रखे गये। (यह प्रथा आज दिन वैष्णव साधु समाज में प्रचलित है।) पश्चात दास शब्द और संयुक्त होने लगा जैसे दुर्गा कुमार दास, शिवनारायण दास, विष्णु चन्द्र दास आदि। अत: इनके वंश नामों की उत्पत्ति इसी तरह हुर्इ और बंगाल में इसी तरह के नाम रखे जाने लगे। बिंगाली कायस्थों का गौरव – यधपि कायस्थों के लिये लेखन सम्बन्धी व्यवसाय निश्चित कर दिया गया था किन्तु बंगाल में समय आने पर हमारे समाज के पूर्वज केवल लेखनी तक सीमित नहीं रह सके। उन्होंने समय आने पर खडग धारण किया और शताब्दियों तक राज्य करते रहे। इसका प्रमाण अबुल फजल अपने ‘आइने अकबरी’ में दे रहा है कि ‘बंगाल पर पहले एक क्षत्रिय वंश ने राज्य किया था। उसकी अवनति के पश्चात चार कायस्थ वंशों ने वहां कर्इ हजारों वर्षों (शताब्दियों) तक शासन किया। उनके नाम क्रमश: भोज, सूर, पाल एवं वंश है। पठानों ने गौड़ देश को सेन राजाओं से जीता और बाद में उन्हें मुगलों ने पराजित किया। सेन राजाओं की अवनति के पश्चात कर्ण सुवर्ण के देव वंश के कायस्थ सरदार स्वतन्त्रता के लिये लगभग दो शताब्दियों तक लड़ते रहे और उस समय भी जबकि मुगल शक्ति अपने शिखर पर थी, सरदार प्रतापादित्य, मुकुन्दराम तथा सीताराम ने मुगलों से लड़ार्इ की और हिन्दू राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया।’ बंगाल एवं आसाम के कायस्थ अपना पूर्वज श्री चित्रगुप्त जी को मानते हैं। ये चित्रगुप्त जी बारह पुत्रों में से हैं। इतिहास के अनुसार र्इसा से पूर्व लगभग 1000 वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश से श्रीवास्तव, सक्सेना, गौड़, निगम, माथुर, अम्बष्ट, भटनागर इत्यादि, बंगाल प्रदेश जो प्राचीन काल में गौड़ देश था, वहा आकर बसे। इनकी सन्तान घोष, बोस, मित्र, मलिक, गुहा, राय, पाल, डे, वैध, नाग, दत्त इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हैं। उत्तरी भारत कायस्थों से इनका समागम सन 1912 में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स के 22वें अधिवेशन फैजाबाद में हुआ। जिसकी अध्यक्षता आनरेबुल जस्टिस शारदा चरण मित्र ने किया था। सन 1914 र्इ0 25वें अधिवेशन में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स इलाहाबाद के अध्यक्ष महाराजा गिरिजा नाथ राय दीनाजपुर हुये। सन 1916 र्इ0 में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स के 26वें अधिवेशन, इलाहाबाद के डॉक्टर सर रास बिहारी घोष हुए। सन 1931 र्इ0 में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स के 36वें अधिवेशन, पटना में श्री के0सी0डे0, CIE, ICS अध्यक्ष हुये। सन 1932 र्इ0 में 37वें अधिवेशन आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स, इलाहाबाद के अध्यक्ष आनरेबुल राजा सर मनमथराय चौघरी, नाइट सन्तोषराज्य थे जो 42वें अधिवेशन हैदराबाद (दक्षिण) सन 1938 में पुन: अध्यक्ष निर्वाचित हुये थे। सन 1938 र्इ0 43वें जुबली अधिवेशन इलाहाबाद के अध्यक्ष, कैप्टन आनरेबुल, महाराजा जगदीश नाथ राय, दीनाजपुर हुये। यूरोप के इतिहासज्ञ, के अनुसार छठी शताब्दी में बंगाल में कायस्थ राजाओं का शासन था। कुछ वर्ष पूर्व जिला फरीदपुर में चार ताम्रपत्र प्राप्त हुये जिसे यह प्रमाणित होता है। (देखिये, Journal of Asiatic Society Bengal 1911 page 54 and Social History of Kamrup by Rai Sahib Pt. N. N. Basu pages 179 to 181) | बंगाल के कायस्थ आसाम तक फैले हैं जिनकी भाषा आसामी है परन्तु लिपि बंगाली। आसाम कायस्थ सभा की 500 पृष्ठ के इतिहास में समस्त पूर्वी बंगाल में कायस्थ राजाओं के शासन का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। बंगाल के कायस्थों में विश्व विख्यात पुरुषों में अग्रसर मुख्यत है – सर्वश्री अरविन्द घोष, स्वामी विवेकानन्द (दत्त), विपिनचन्द्र पाल (गौड़), सर रास बिहारी बोस, खुदी राम बोस, जगदीश चन्द्र बोस, सुभाष चन्द्र बोस एवं लार्ड एस0 पी0 सिन्हा। |
बिहारी कायस्थ |
‘’ कायस्थों की उत्पत्ति के विषय में अनेकों लेख प्रकाशित हो चुके हैं तथा पौराणिक व ऐतिहासिक दोनों ही द्रष्टियों से वे उच्च वर्ग के अन्तर्गत माने गये हैं। देश के अन्य भू-भागों की भांति बिहार में भी इनका इतिहास काफी पुराना है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार वे र्इसापूर्व तीसरी शताब्दी में ही अपना विशिष्ट स्थान बना चुके थे। नंदवंश के राज्य में मंत्री शकटार कायस्थ थे। उनके पुत्र स्थूलभद्र जैन मुनि बन गये तथा श्री चक्र ने मंत्री पद सुशोभित किया। मुद्राराक्षस एवं मृच्छकटिक ग्रन्थों में भी कायस्थों का उल्लेख मिलता है। राजतंत्र में फेर बदल के फलस्वरुप उनका स्वरुप बदलता रहा, किन्तु गुप्तकाल में उनको पुन: विशिष्ट जाति का दर्जा मिला कुछ कायस्थों की सुकीर्ति तो ऐसी उभरी कि वे कालजयी हो गये। आर्यभटट (476) र्इ0 इनमें प्रमुख है। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने प्रमाणित किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य की परिक्रमा करती है जिसके फलस्वरुप दिन-रात तथा समय-समय पर ग्रहण होते है। उन्होंने ‘आर्यभटटतंत्र’ तथा ‘आर्य भटीय’ की रचना संस्कृत भाषा में की। भारत सरकार ने इसी वि़द्वान के नाम पर प्रथम उपग्रह का नाम ‘आर्यभटट’ रखा। हर्ष वर्धन (606-646 र्इ0) के समय में वाणभटट हुये। इनके ग्रन्थ ‘हर्षचरित’ एवं ‘कादम्बरी’ काव्य साहित्य तथा ऐतिहासिक द्रष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जाते हैं। पूर्वी भारतीय भाषाओं के जनक के रुप में सिद्धो का विशेष योगदान रहा। इनमें लुइया (830 र्इ0) तथा कण्हपा (840 र्इ0) कायस्थ थे। सातवीं शताब्दी में नालन्दा एशिया का सर्वश्रेष्ठ विश्वविधालय था। यहा के ख्याति प्राप्त आचार्यों में नामार्जुन जन्मजा कायस्थ थे। मिथिला में जब कर्णाट वंश के नान्यदेव ने शासन चलाया तो इनके साथ कायस्थ श्रीधर मंत्री के रुप में आये। इसी वंश के शासन काल (1097-1147 र्इ0) के बीच लक्ष्मीधर राजा गोविन्द चन्द्र देव के संधि विग्रह मंत्री थे। उन्होंने विधि की प्रसिद्ध पुस्तक ‘कृत्य कल्प तरु’ की रचना की तथा इसी के आधार पर मिथिला का राज्य शासन चलता रहा। राजा अंगदेव ने प्रत्येक परगने में समाहर्ता नियुक्त किये जिन्हें चौधरी की उपाधि दी गर्इ। यह कायस्थ थे और मिथिला में आज भी कायस्थों की उपाधि चौधरी है। मुगलकाल में कायस्थों का विशेष उल्लेख नहीं मिलता। अंग्रेजों के बिहार में आगमन से कायस्थ पुन: प्रकाश में आने लगे। सुलेख तथा अच्छे भाषा ज्ञान के आधार पर वे भाषा मुंशी के पद पर नियुक्त हुये और कालान्तर में मुंशी कहलाने लगे। प्रशासन में वे रीढ़ की हडडी के समान महत्वपूर्ण थं। कुछेक कायस्थ बन्धुओं ने धर्म-संस्कृति आदि के क्षेत्र में भी अपनी पहचान बनार्इ। ऐसे ही एक सन्त मंगनीराम (1943 र्इ0) हुये जिनका ‘रामसिन्धु’ (883 पृ0) सन्तमत की ज्ञानाश्रयी शाखा का प्रमुख ग्रंथ है। 1953 र्इ0 में सारण जिलान्तर्गत चित्रांश परिवार में निगुर्णिया सन्त श्री धरम दास हुये। आपके ग्रन्थ ”प्रेम प्रकाश’ व ‘सत्य प्रकाश’ निर्गुण शाखा की अनमोल पूंजी है। इसी प्रखण्ड में भक्तकवि हलधर दास (1958 र्इ0) हुये। शीतला के प्रकोप से यह द्रष्टि विहीन हो गये, फिर भी इन्होंने ‘सुदामा चरित’ की रचना की जो कृष्ण भक्ति काव्य का एक अनुपम ग्रन्थ है। स्वतन्त्रता संग्राम की पहली लड़ार्इ (1857 र्इ0) से यह सिद्ध हो गया कि अंग्रेज वास्तव में भारतीयों के शत्रु थे। अत: विभिन्न स्तरों पर उनके विरोध में आन्दोलन और प्रचार भी होने लगा। अपनी रचनाओं द्वारा देश भक्ति जाग्रत करने में सारण जिले के रघुवीर नारायण जी का विशेष योगदान रहा। गाधी जी की दाण्डी यात्रा में श्री गिरवर धर चौधरी निरन्तर उनके साथ रहे। स्वाधीनता संग्राम में जिन कायस्थ बन्धुओं ने अपना योगदान दिया उनमें देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद, सच्चिदानन्द सिन्हा तथा महेश नारायण विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं। डा0 राजेन्द्र प्रसाद तो बाद में देश के प्रथम राष्ट्रपति हुये। अन्य दोनों चित्रांश बन्धुओं के सफल आन्दोलन के फलस्वरुप 1912 र्इ0 में पृथक बिहार प्रान्त का निर्माण हुआ। आजादी की लड़ार्इ में लोक नायक जय प्रकाश नारायण के योगदान को तो हम भूल ही नहीं सकते। बिहार में कायस्थों की विशिष्ट स्थिति रही हैं। प्रशासन से जुड़े रहकर भी वे अपनी अलग पहचान बनाये रखने में सफल रहे। यह विशिष्टता प्रमुखत: शिक्षा के कारण बनी। अंग्रेजों के शासन काल में तो कायस्थ बन्धुओं की पुलिस विभाग, शिक्षा विभाग, काननगो, आबकारी, मुंसिफी आदि में काफी संख्या थी, जो कालान्तर में विषम परिस्थितियों के कारण कुछ घटने लगी। फिर भी लगभग प्रत्येक क्षेत्र में वे अपनी पहचान बनाये रखने में सफल रहे हैं। |
उड़ीसा के कायस्थ |
‘’ उड़ीसा के कायस्थ परिवारों को कर्ण परिवार कहा जाता है। अब तक उड़ीसा के कायस्थों पर ऐसी कोर्इ पुस्तक नहीं लिखी गर्इ जिससे यह पता चल सके कि इन्हें केवल ‘कर्ण’ के नाम से ही क्यों जाना जाता है। उड़ीसा के कर्ण समाज की निम्नलिखित पदवियाँ\उपाधियाँ हैं – पटनायक, महान्ति, कानूनगो, दास आदि। महान्ति, दास, कानूनगो, पदवी खेतिहरों में मिलती है। ये अपने आपको ‘खंडायत’ कहते हैं जिसका अर्थ क्षत्रिय है, परन्तु क्षत्रिय समाज में भी इनका स्थान भिन्न है। उसके निम्नलिखित कारण हैं – कर्ण समुदाय सदा से शिक्षित होने के कारण सम्पन्न रहा है। अत: अन्य सम्पन्न व्यक्तियों की तरह ये भी ‘दासी’ रखते थे। इन दासियों के वंशजों को गुमा महान्ति\गुलाम कर्ण कहा गया। उड़ीसा में तीन जातियाँ ही समृद्धि के चरम शिखर पर थीं और अब भी हैं। वे हैं – कायस्थ, ब्राह्राण और क्षत्रिय। उड़ीसा कायस्थों की मूलत: दो ही उपाधियां मिलती हैं – पटनायक एवं महान्ति । उड़ीसा के कायस्थ परिवार अक्सर सामुदायिक रुप से रहते हुये मिलते हैं। इन स्थानों को ‘कर्ण सार्इ’ (कर्ण बस्ती) कहा जाता है। कटक जिला के बिरीमाटी, कंदरपुर, सालेपुर, महागा, नेनापुर, सुकदेर्इपुर, बलरामपुर, तलगढ, चित्तापल्ली, तालगडि़या, मसूदपुर, मल्लपाड़ा, जखपूरा, बालेश्वर जिला के बालेश्वर रदांगा, केऊ़झर जिला के देवंग, कुलेश्वर आदि इसी प्रकार के कर्ण परिवारों की प्रसिद्ध बस्तियाँ हैं। उड़ीसा के कर्ण परिवार के पर्वो में ‘राम्हा पूर्णिमा’ (भाद्रपद पूर्णिमा), विजयादशमी (दशहरा) और सरस्वती पूजा प्रसिद्ध है। इन पर्वों में लेखनी और ताड़पत्र की पोथी की पूजा की जाती है। गम्हा पूर्णिमा के दिन भगवान चित्रगुप्त की पूजा की जाती है। सरस्वती पूजा के दिन माता-पिता सरस्वती के साथ-साथ लेखनी और पोथी की पूजा भी करते हैं। गम्हा पूर्णिमा और सरस्वती पूजा के दिन बच्चों को लेखनी (कलम) पकड़ कर विधारम्भ करने की रीति है। ऐसा विश्वास है कि इन दिनों में प्रभु चित्रगुप्त स्वयं अपने वंशधर को आशीर्वाद सहित विधारम्भ की अनुमति देते हैं। कर्ण समुदाय में अनपढ़ होना पाप माना जाता है। उड़ीसा के कायस्थ परिवार राजनीति, साहित्य, संगीत आदि हर क्षेत्र में अग्रणी हैं। उड़ीसा के कायस्थ समाज के कुछ व्यक्ति जो अपने अपने क्षेत्र में अद्वितीय रहे, वे निम्नलिखित हैं –
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महाराष्ट्र प्रदेश के चन्द्रसेनी कायस्थ प्रभु |
‘’ चन्द्रसेन कायस्थ प्रभु का इतिहास बड़े महत्व का एवं रहस्य जनक है। ‘शब्द कल्प-द्रुम’ के छठे खंड के दूसरे कांड में कथन है, जिसके लेखक सर राजा राधा कान्त देव बहादुर, शोभा बाजार राजा (कलकत्ता) है – चित्रगुप्त वंशे कायस्थोपाधि धारिणा। सूर्यवंश्या तथा भूपा: सोमवंश्या भुवि। चन्द्रसेनस्य वंश्या ये कायस्था जगती तले। एषा कायस्थ संज्ञत्वां वर्णख्या शास्त्रसम्मता। आधुनिक काल में श्री परशु राम जी ने क्षत्रियों को धरती से विहीन करने की प्रतिज्ञा की। फलत: अयोध्या के राजा चन्द्रसेन चित्रगुप्त वंशज क्षत्री का बध किया। चन्द्रसेन की पत्नी के गर्भ में बालक था। उसने भागकर पूना के निकट वल्लभ ऋषि के आश्रम में आश्रय लिया। परशु राम जी ने यह जानकर वल्लभ ऋषि के पास जाकर चन्द्रसेन की रानी को वध करने के लिये मांगा। वल्लभ ऋषि रानी को इस शर्त पर देने को तैयार हो गये कि गर्भ के बालक का बध न किया जाये। परशुराम जी असमंजस में पड़ गये और रानी का बध नहीं किया और कहा ‘इसके जो बालक होगा वह कायस्थ कहलायेगा और उसका व्यवसाय लेखक एवं गणित का होगा। वह सैनिक कार्यों में भाग न लेगा।’ तथास्तु । बालक का नाम सोम राजा हुआ, इनकी संतान बड़ी प्रभावशाली हुई एवं राज्यों में प्रमुख पदों पर नियुक्त हुए। उस समय शूद्र ने उनको प्रभु (मालिक राजा) के नाम से सम्बोधित करने लगे। इस प्रकार यह वर्ण चन्द्रसेनी कायस्थ प्रभु के नाम से प्रसिद्ध है। सोमराज तथा उनकी पत्नी (कायस्थ चित्रगुप्त की पुत्री) की सन्तति से चन्द्रसेनीय कायस्थों की वंशावली प्रारम्भ हुयी। यधपि परशुराम ने उनके पूर्वजों का वध किया था, चन्द्रसेनीय कायस्थ परिवार आज भी रेणुका को कुलदेवी के रुप में पूजते हैं। काश्मीर में चिनाब की घाटी से प्रारम्भ होकर वे धीरे-धीरे महाराष्ट्र, दक्षिणी समुद्रतटीय प्रदेश, कोंकण, कोलाबा, बड़ौदा आदि स्थानों पर बस गये। चिनाव का संस्कृत में अर्थ है चन्द्र। अत: वे चन्द्रश्रेणीय और कालान्तर में चन्द्रसेनीय कहलाने लगे। लगभग डेढ़ शतक पूर्व श्रंगेरी मठ के शंकराचार्य द्वारा दिये गये निर्णय के आधार पर चन्द्रसेनीय कायस्थ विशुद्ध रुप ये क्षत्रिय हैं। उनको वेदाध्ययन तथा समस्त वैदिक कार्य करने का पूर्ण अधिकार रहा है। अनुमान है कि कोंकाण के शिलाहार राजाओं ने उनको ‘प्रभु’ की उपाधि से विभूषित किया था। प्रभु का दूसरा अर्थ था उच्च पदस्थ शासकीय अधिकारी। महाराजा शिवाजी के पेशावरो के शासन काल में वे उच्च पदों पर आसीन थे और प्रमुख व्यक्तियों में गिने जाते थे। उनकी देशभक्ति एवं स्वामि भक्ति से प्रभावित होकर शिवाजी ने अनेकों चन्द्रसेनियों को अपने सुदूरवर्ती दुर्गों के प्रशासक तथा अन्य विश्वसनीय प्रमुख पदों पर नियुक्त किया था। इनमें बाजी नरस प्रभु, बहिरजी नायक, जी प्रभु देशपाण्डे, मुराबजी देशपाण्डे बालाजी आवाजी चिटनिस की देश सेवा एवं स्वामिभक्ति अवर्णनीय है। शिक्षित सुसभ्य तथा मांसाहारी होने के कारण वे ब्रिटिश शासनकाल में भी विदेशियों तथा अन्य विशिष्ट व्यक्तियों में भली प्रकार से घुलमिल गये और अपना पूर्ववर्ती स्थान बनाने में सफल रहे। इस काल के प्रमुख व्यक्ति सर गोविन्द बलवन्त प्रधान (बंबर्इ प्रान्त के वित्तमंत्री) तथा सर महादेव भास्कर चौबल (कार्यकारिणी समिति के सदस्य एवं बम्बर्इ हार्इकोर्ट के जज) थे। अपनी आकर्षक मुख मुद्रा तथा सौन्दर्य के कारण स्त्रियाँ प्राचीन काल में सिने पटल पर पूर्णतया छार्इ रहीं। इनमें प्रमुख हैं शोभना समर्थ, स्नेह-प्रभा प्रधान, नलिनी जयवन्त, सुमति गुप्ते, मीरा जोगलेकर, कुसुम देशपाण्डे, सन्ध्या, नूतन, तनुजा, काजोल तथा रेखा, कुलकर्णी। तदुपरान्त अन्य क्षेत्रों से भी स्त्रियों के सिने प्रवेश के फलस्वरुप चन्द्रसेनीय महिलाओं ने अन्य क्षेत्रों की ओर ध्यान देना आरम्भ किया। आज वे सरकारी अथवा निजी कार्यालयों, विश्वविधालयों, महाविधालयों आदि में कार्य रत हैं। अन्य क्षेत्रों में कुसुमवती देशपाण्डे (सहित) तथा मृणाल मोरे (सामाजिक) को भुलाया नहीं जा सकता है। पुरुष वर्ग में अनेको व्यक्तियों ने उच्च पदों पर रहकर तथा अन्य क्षेत्रों में प्रंशसनीय कार्य किया है। इनमें सर गोविन्द बी0 प्रधान (बम्बर्इ के गवर्नर की कार्यकारिणी समिति के सदस्य), राम गणेश गडकरी (मराठी साहित्य तथा स्टेज कला के लिये प्रख्यात), आचार्य एस0 आर0 मिसे (गोरवले एजूकेशन सोसाइटी के संस्थापक), के0 बी0 बैधा (भारतीय डाक तार विभाग में प्रमुख), आर0 एस0 हाजरनवीस (सुप्रसिद्ध कानूनविद, संसद सदस्य तथा केन्द्र में उपमंत्री रहे), बी0टी0 रणदिवे, बी0 बी0 कार्णिक, दत्ता तामहेन, कम्यूनिस्ट पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता के रुप में बाल ठाकरे (शिव सेना प्रमुख) तथा सी0 डी0 देशमुख केन्द्र में वित्त मंत्री, विश्वविधालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष, तथा दिल्ली विश्वविधालय के उपकुलपति थे। एस0 जी0 प्रधान (पुलिस कमिश्नर, विशिष्ट सेवाओं के लिये पुलिस पदक से सम्मानित) सुभाष गुप्ते (प्रमुख क्रिकेट खिलाड़ी), पुरुषोत्तम आर0 राजे (सुप्रसिद्ध उधोगपति), सुराब (सुरेन्द्र), गोविन्द राव टिपनिस (प्रख्यात समाजसेवक) तथा वन्त गोविन्द देशमुख (महाराष्ट्र राज्य प्रकाशन विभाग में प्रमुख अधिकारी) की सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकता। चन्द्र सेनी कायस्थ के उपवर्गों के नाम इस प्रकार हैं – अधिकारी, चित्रे, डोंडे, गुप्ते, जयवन्त, प्रधान, राजे, रनदीवे, वैधा। राज्य के पदो के अनुकूल उनके नाम इस प्रकार भी हैं – चितनवीस, कोतवाल, परसनवीस, पटनीस, टिपनीस, फरनीस, देशमुख, देशपांडे, दफतरदार, डोंगरे, कार्णिक, दीवान, कुलकरनी, थैकरे, मेढेकर इतियादि हैं। सन 1926 में आल इंडिया कायस्थ कान्फ्रेन्स कलकत्ता के 33वें अधिवेशन के अध्यक्ष सर शंकर राव माघी राय चितनवीस हुये थे। 19 मर्इ सन 1949 र्इ0 में बम्बर्इ के प्रभु कायस्थों ने लेखक का (जो उस समय प्रधान मंत्री आ0 र्इ0 कायस्थ कान्फ्रेन्स के पद पर था। ताजमहल होटल में स्वागत किया एवं बम्बर्इ प्रान्तीय कायस्थ सभा स्थापित की जिसके सदस्य उत्तर भारत तथा कायस्थ प्रभु निर्वाचित किये गये। सन 1951 र्इ0 में 53 वें अधिवेशन कायस्थ कान्फ्रेन्स बम्बर्इ के स्वागताध्यक्ष प्रिंसिपल श्री टी0 कुलकर्णी थे। सन 1971 र्इ0 के 58 वें अधिवेशन की स्वागत समिति के उच्च पदों पद सुशोभित है। |
दक्षिण के करनीगर कायस्थ |
‘’ दक्षिण के लगभग 5 लाख करनीगर कायस्थ अधिकतर ग्राम करनम्स में अध्यापक की भाति नौकरी कर रहे हैं और कांचीपुरम के चारों ओर मद्रास नगर से 45 मील दूर 4-5 जनपदों में फैले हैं। वहां भगवान चित्रगुप्त जो केवल समस्त करनीगरों के ही नहीं बल्कि समस्त कायस्थों के प्रमुख देवता हैं। परम्परानुसार करन की देवी-भगवान चित्रगुप्त की 3 में एक पत्नी जिन्होंने अपनी कठिन सफल तपस्या के बल अपने 8 पुत्रों की बीरासेगरयागा की 8 पुत्रियों से विवाह कर दिया। प्रत्येक पुत्री के 8 पुत्र अर्थात कुल 64 पुत्र हुये। इन 64 पुत्रों ने शंकरमाजा के परिवार की पुत्रियों से शादी कर, प्रत्येक ने अपने परिवार का पृथक मुखिया बनाया। प्रत्येक का पृथक गोत्र होने से 64 गोत्र बने। ये 64 पुत्र अपने गुरु ज्ञान ऋषि के निर्देश पर वे चेन्नियां चोल के अनुयायी बन पलार नदी के किनारे ग्राम लेखाधिकारी बन गये। इस प्रकार वे अपने उत्तर के भाइयों से अलग हो गये। पुरातन काल में ग्रामों के राजा माने जाने लगे। चेन्नया चोल के समय में भुलाबार मण्डयम वामदेव गोत्रीय ने कांजीवरम और श्री चित्रगुप्त का मंदिर बनवाया था, जो कैलासन्थेर तथा श्री बैकुण्ठ पेरुमल के मंदिरों के मध्य एवं कामाक्षी देवी मंदिर के बगल में था। निसन्देह नटराज जी के मंदिर चिदम्बरम में चित्रगुप्त जी की प्रतिमा की स्थापना 1913 में अवश्य हो चुकी है। इस चित्रगुप्त मंदिर ने सम्पन्नता देखी है। समय के साथ भक्तों, अनुयायियों के प्रभाव के नष्ट होने व हैदर अली के आक्रमण के कारण उन्हें मंदिर का त्याग करना पड़ा। प्रतिमा मंदिर के पीछे आंगन में जमीन में दब गर्इ जो 1911 में खोद कर निकाली गयी। मंदिर के खण्डहर मात्र अवशेष थे। महान श्रम तथा धन व्यय करने के पश्चात 1918 में वर्तमान रुप प्रदान किया जा सका। अप्रैल व मर्इ के मध्य चित्रा नक्षत्र में करन की देवी के चित्रगुप्त जी के साथ विवाह के उत्सव के आयोजन में कान्जीवरम के 4 मुख्य मार्गो से जुलूस निकाला जाता है। दक्षिण भारत के कायस्थ करनीगर बुद्धि-प्रखर होते हुये भी अपने उत्तर के भाइयों से साधन एवं सम्पन्नता में बहुत पीछे हैं। इसी प्रकार करनीगरों में रामलिंगा स्वामीगल एवं अन्य भी दक्षिण में महान हुये हैं। |
ग्रन्थों में कायस्थ |
कायस्थों का वर्णन धार्मिक और धर्म निरपेक्ष दोनों प्रकार के ग्रन्थों में मिलता है। इनमें कुछ इस प्रकार है :- ‘मैं श्री चित्रगुप्त का आव्हान करता हू जो सरस्वती नदी के उत्तर-पशिचम (यहां अल्तार्इ पर्वत से संकेत है जहा यम की राजधानी थी) में रहने वाले लोगों की वेशभूषा धारण करते हैं, जो देखने में सुन्दर, कागज कलम धारी दो हाथों वाले हैं, जिनकी विरोधी देवी केतु है।’ श्री चित्रगुप्तजी की पूजा में उच्चारित मंत्रों का उल्लेख ‘दाना मन्जुखां’ के अधिकांश भागों में वर्णित है। चित्रगुप्तजी का आव्हान नियमित रुप से भोजन के समय किया जाता है। स्तुति पश्चात प्रत्येक व्यकित 4 या 5 ग्रास भोजन अपनी दाहिनी ओर, धरती पर रखता है। यह चित्र अथवा चित्रगुप्तजी हेतु आहुतिया कहलाती हैं। ग्रास रखते समय यों कहना चाहिए ‘समिर्पित है चित्र को चित्रगुप्त को, यम को, यम धर्म को भूर्भ बटेश्वर को’। सभी ब्राह्राण भोजन से पूर्व चित्रगुप्त को चावल के पिण्ड समर्पित करते हैं। सोलह कनागतों में श्राद्व के समय भी उनका आव्हान किया जाता है। अथर्ववेद (सायण भाष्य) के अनुसार राजा चित्र वैवस्वत, विवास्व या आदित्य के पुत्र थे। उन्होंने यज्ञ अगिनहोत्र और तप द्वारा धर्मराज का पद प्राप्त किया। सभी प्राणियों में श्रेष्ठ चित्र ने सूर्य भगवान की तपस्या की जिन्होंने प्रसन्न होकर राजा चित्र से वर मांगने को कहा। इस पर चित्र ने कहा ‘भगवान यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो ऐसी शकित प्रदान करें जिससे मैं कायस्थ अथवा सर्वज्ञ हो जाऊं। 4. चित्रगुप्त वंश निर्णय भाग-। पृष्ठ 49-53 और भाग।। बा-कामता प्रसाद बनारस द्वारा कायस्थों का वर्ण एक जाति विशेष के रुप में सर्व प्रथम याज्ञवल्क्य (राज्य धर्म का श्लोक 336) में मिलता है जिसके अनुसार वे लेखपाल और ग्राम लेखाकार थे। इसी स्मृति में संंकलन कर्ता ने कहा है कि एक राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा को ठग, चोर, दुष्ट तथा अन्य लोगों, विशेष कर कायस्थों के उत्पीड़न से बचावें।) दी इंडियन एण्टी कैरी मार्च 1832 बम्बर्इ दी नागर ब्राह्रान्स एण्ड दी बंगाल कायस्थाज प्रोफेसर डी0 आर0 भण्डारकर। |
प्राचीन कामरुप कायस्थ समाज |
‘’ हमारे देश का पूर्वोत्तर प्रान्त आसाम प्राचीन काल में महाभारत में प्राग ज्योतिष तथा पुराणों में कामरुप के नाम से विख्यात रहा है। इसका विस्तार दक्षिण में बंगाल की खाड़ी और गोहाटी के निकट कामाख्या देवी का मंदिर इसका केन्द्र रहा है। श्री नगेन्द्र नाथ बसु द्वारा लिखित ‘सोशल हिस्ट्री ऑफ कामरुप’ के अनुसार प्राच्य विधा महार्नव से कन्नौज के निवासी थे। राजा दुर्लव नारायण के शासन काल में वे बंगाल के गौर राज्य में बस गये इनमें से तमाम कायस्थ कामरुप कामाख्या चले गये, जहा राजा धर्म नारायण ने उनको भूमि उच्च पद आदि दिये। कामरुप कायस्थों में नाग शंकर व नागाक्ष ने चतुर्थ शताब्दी में राज्य किया और प्रतापगढ़ को राजधानी बनाया। इनके वंशज मीनाक्ष, गजंग, श्री रंग तथा मृगंग ने लगभग 200 वर्ष तक राज्य किया। कालान्तर में नाग कायस्थ, क्षत्रिय वंश कायस्थ भुइयाँ कहलाया। इस वंश के अंतिम शासक को मार कर जिताशी वंश के प्रताप सिंह ने आधिपत्य स्थापित किया। सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण से ‘स्तम्भ’ वंश ने प्रागज्योतिषपुर पर दसवीं शताब्दी के अंत तक राज्य किया। इन्हीं के समय में कायस्थ घोष वंश कामरुप के पछिमी भाग में राज करने लगा। यह भाग ‘धाकुर’ के नाम से विख्यात था। धाकुर के पूर्व में वर्तमान गोआल पाड़ा जिले में क्षत्रिय कायस्थ धूत्र्तघोष ने राज्य बना लिया। इनके वंशज र्इश्वर घोष को कामरुप-कामाक्षा के शासक धर्मनारायण ने पराजित किया। प्राचीन काल में शासकों द्वारा सम्मानपद, भूमि पटटे आदि ताम्रपत्र पर लिखकर दिये जाते थे। सातवीं शताब्दी में भास्करवर्मन द्वारा प्रदत्त पंचखंड (सिलहट) ताम्रपत्र में न्यायकर्णिका (मजिस्ट्रेट), जनार्दन स्वामी और व्यावहारिक (न्यायविद) हर दत्त कायस्थ का उल्लेख मिलता है। ”अर्ली हिस्ट्री ऑफ कामरुप” के अनुसार उस समय वहाँ के शासक शशांक थे। यह ताम्र पत्र भास्कर वर्मन ने कर्णसुवर्ण (आसामी साहित्यानुसार कर्णपुर) में प्रदान किया था। यह स्थान वर्तमान बंगलादेश में पड़ता है। सर एडवर्ड गेट लिखित ‘ए हिस्ट्री ऑफ आसाम’ के अनुसार ब्रह्रापुत्र नदी के दक्षिण में अनेकों छोटे-छोटे सरदार रहते थे। अपने प्रदेश में स्वतंत्र होते हुए भी वे बाह्रा आक्रमण के समय आपस में मिलकर रक्षा करते थे। यह सभी कायस्थ थे तथा आसाम के इतिहास में ‘बारा भुइयाँ ‘ के नाम से जाने जाते हैं। यहा बारा का तात्पर्य अंक बारह से है तथा भुइयाँ का अर्थ है भूस्वामी अथवा जमींदार। कूच बिहार के शासक नारायण के दरबार में 12 मंत्री थे। सम्भवतया इसी के आधार पर बारा का अंक शासक के बाद प्रमुख व्यक्ति के नाम के साथ जोड़ने की परम्परा प्रचलित हो गर्इ। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में प्रताप ध्वज के पुत्र दुर्लभ नारायण गौर सिंहासनारुढ़ हुए। जितारी वंश के धर्म नारायण ने कामातापुर को अपनी राजधानी बनाया। ये दोनों ही शासक कायस्थ थे। चौदहवीं शताब्दी में ही सिला ग्राम (वर्तमान नलवारी जिलान्तर्गत) के कायस्थ शिक्षाविद कविरत्न सरस्वती ने अपने काव्य ‘जयद्रथ वध’ में पाल शासक दुर्लव नारायण और इन्द्र नारायण का उल्लेख कायस्थ के रुप में किया है। ‘गुरु चरित’ के अनुसार आरम्भ में 6 ब्राह्राण-कृष्ण पंडित रघुपति, रामवर, लोहार, वारन, धरम और मथुरा तथा 6 ही कायस्थ-चन्दीवर, श्रीधर, हरी, श्रीपति, चिदानन्द और सदानन्द ने कन्नौज से आकर गौर में शरण ली। वहां के शासक ने ‘बारा भुइयाँ’ की पदवी तथा भूमि प्रदान कर अपने राज्य में बसा लिया। उनके मूल आवास के आधार पर उस स्थान का नाम कन्नौजपुरा पड़ गया। तदोपरान्त धर्म नारायण के आग्रह पर गौर शासक दुर्लभ नारायण ने उनको कामातपुर भेज दिया। जहाँ उनको भूमि तथा दास देकर बसा दिया गया। कुछ समय पश्चात अन्य ब्राह्राण तथा कायस्थ भी गौर होते हुए कामरुप पहुँचे और बारा भुइयाँ के रुप में वहीं बस गये। सुप्रसिद्ध बारा भुइयाँ शिक्षाविद चंडीवार शिरोमणि की पदवी से विभूषित किये गये। चंडीवार के पुत्र राजधर अली फुकरी में बस गये। उनके पुत्र सूर्यवार, पौत्र कुसुमवार शिरोमणि भुइयां तथा प्रपौत्र शंकर देव ने राज्य किया। श्री शंकर देव आसाम के एक सुप्रसिद्ध संत हुए। उन्होंने ‘एक सरल नाम धर्म’ की स्थापना की। अपने भक्ति कथानकों में उन्होंने स्वंय को ‘कायस्थ संकर’ के रुप में प्रदर्शित किया है। कालान्तर में लगभग सभी बारा भुइयाँ कायस्थ उनके मत को स्वीकार कर विष्णु के उपासक बन गये। प्रारम्भ से ही कामरुपीय कायस्थ अपने लिए भुइयाँ, गिरि, राय, दत्ता, वासु व घोष, उपनाम तथा पदवी स्वरुप सिकंदर, मजूमदार, चौधरी, गोमाश्ता, भंजार कायस्थ बरुआ आदि का प्रयोग करते रहे हैं। इसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में उनके उपनाम हैं – ठाकुर, अधिकारी, गोस्वामी, महन्त और मेधी। साहित्यरत्न हरि नारायण दत्ता बरुआ द्वारा लिखित लगभग 900 पृष्ठों का एक बृहद ग्रंथ ‘प्राचीन कामरुपीय कायस्थ समाज इति वृत’ उपलब्ध है। इसमें प्राचीन कामरुप कायस्थों से सम्बंधित समस्त तथ्यों पर ऐतिहासिक, भौगोलिक तथा अन्याय द्रष्टिकोणों से विस्तृत विवेचन किया गया है। |
उठ चित्रांश उठ |
उठ चित्रांश उठ मैं बोल रहा हू चित्रगुप्त |